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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रुधिर वैकारिकी ८७१ केत्वातु ( कोबाल्ट )-इस धातु की सूक्ष्मांश में रुधिराणुओं की उत्पत्ति और रंजन के लिए आवश्यकता होती है । जीवतिक्ति बी-शोणकोशरुह (haemocytoblast) जिन्हें पूर्वरुधिररुहाणु (pro-erythroblast ) भी कहा जा सकता है की दुष्टि के लिए ताकि उसका विभजन ठीक ठीक हो सके विटामीन बी की आवश्यकता आज अनुभव में आ रही है। खोज की आवश्यकता है हरीतकी में निहित विटामीन बी और उसके असंख्य तत्वों की। __ पत्रिकाम्ल (फोलिकाम्ल )-फोलिक एसिड भी विटामीन बी के साथ साथ उसकेकार्य में सहायता देने के लिए आवश्यक मानी गई है । आयुर्वेदज्ञ प्रत्येक औषधि के साथ जो ताजा पत्रस्वरस अनुपान रूप में देते हैं वह स्पष्टतः उसकी महत्ता को आज सिद्धकरता है क्योंकि पत्तियाँ फोलिक एसिड की प्राप्ति का नैसर्गिक आधार होती हैं। अग्रपीयूषग्रन्थि (anterior pitiutary gland) का ए. सी. टी. एच. ( adrenocorticotrophic hormone ) नामक हार्मोन भी रक्तसंजनन क्रिया का वर्द्धक होता है । अक्टुकाग्रन्थिसत्व ( thyroxine ) भी रक्तसंजनन में चयापचय क्रियाओं की वृद्धि करके परोक्षतया सहायक होता है । इस प्रकार रक्तसंजनन वा रस के रक्तरूप में परिणत होने के लिए, कोशाओं में लोहा मिलाने के लिए तथा उचित वातावरणोत्पादन के लिए कई वस्तुओं, तत्वों और न्यासों (हार्मोन्स) की आवश्यकता पड़ती है। संख्या सम्बन्धी परिवर्तन-एक स्वस्थ पुरुष में ५७ से ५५ लाख प्रतिघन मिलीमीटर की संख्या में रुधिराणु रहा करते हैं। यह संख्या स्वस्थ स्त्रियों में कम हुआ करती है। कोई ४०-४५ लाख रुधिराणु प्रति घ. मि. मी. उनमें मिलते हैं। जब किसी कारण से यह संख्या और बढ़ जाती है तो उस अवस्था को बहुकोशारक्तता (polycythaemia) कहते हैं। यह बहुकोशारक्तता जहाँ वास्तविक हो सकती है वहाँ मिथ्या भी। मिथ्या बहुकोशारक्तता का उदाहरण है जब शरीर से जलीय भाग शीघ्रता से शरीर से बाहर चला जाकर रक्त गाढ़ा हो जाता है तथा उग्र जलाभाव ( dehydration ) रुग्ण को व्यथित किए रहता है तथा उसके रक्तचित्र में जिस बहुकोशारक्तता का आभास मिलता है वह वास्तविक न होकर मिथ्या ही हुआ करता है। विसूचिका, हैजा, अतीसार, ग्रहणी, प्रवाहिका आदि रोगियों में यह मिथ्याबहुकोशारक्तता मिल सकती है। जहाँ व्यक्ति को उच्च पर्वतीय जीवन व्यतीत करना पड़ता है वहाँ रक्त की जारण क्रिया (oxygenation ) कम हो जाती है वातावरणस्थ औक्सीजन के पीडन (प्रैशर ) की कमी के कारण वहाँ भी यह हो सकती है। तब इसे पूरक बहुकोशारक्तता ( compensatory polycy thaemia) कहा जाता है। जब रोगी नीचे भागों में उतर आता है तो यह पूरकबहुकोशारक्तता चली जाती है । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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