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अर्बुद प्रकरण
रचना की दृष्टि से विचार करने पर हम देखते हैं कि जब न्यच्छ मारात्मकरूप धारण करने लगता है तो अर्बुद कोशा गहरी ऊतियों की ओर प्रगति करने लगते हैं उनकी प्रसुप्तावस्था समाप्त हो जाती है। कोशाओं का आकार भी कुछ बड़ा हो जाता है उनकी न्यष्टि परमवर्णिक हो जाती है और उनमें विभजनाङ्क पाये जाने लगते हैं। इस प्रकार एक पूर्ण प्रगल्भ काल्यर्बुद के कोशा बृहत् , बहुभुजीय और अवकाशिकीय समूहन (alveolar grouping ) से संयुक्त देखे जाते हैं। इनके समूहों के मध्य में बहुत सूक्ष्म संधार पाया जाता है। इसका यह स्वरूप इसे कर्कटार्बुद का जामा पहना कर भ्रमोत्पत्ति कर सकता है । नेत्र में इसके कोशा अधिक तकरूप होने से उसका रूप तन्तु संकट से मिलता जुलता हो जाता है।
काल्यर्बुद की जितनी विभिन्नताएँ देखी जाती हैं उतनी अन्य अर्बुदों की बहुत कम देखने में आती हैं। इस कारण कर्केट, संकट, अन्तश्छदीयार्बुद या लससंकटार्बुद तक से मिलने वाले इसके रूप देखे जा सकते हैं।
कोशाओं में कालि की उपस्थिति से पहचान में पर्याप्त सहायता मिला करती है पर जब कालिनिर्माता कोशा प्रसुप्त रहते हैं तो औतिकीय चित्र ही इसकी पहचान का प्रमुख साधन होता है। अर्बुद देखने में काले रंग का होने पर भी अन्तर्कोशीय रंग पीला होता है। जब अरंगित काल्यर्बुद मिलता है तो उसकी पहचान डोपा प्रतिक्रिया द्वारा की जा सकती है। द्विउददर्शलासुवी ( dihydroxyphenylamie) एक जारकेद ( oxydase ) के साथ मिलकर रंगीय क्षेत्रों के कुछ कोशाओं के साथ कालि के समान एक असित पदार्थ तैयार करता है। इसे डोपाप्रतिक्रिया कहते हैं। यह सच्चे कालिरुहों की उपस्थिति मापने का रासायनिक परीक्षण है जिसे ब्लौच ने बतलाया है। कालिरुह डोपा अस्त्यात्मक (dopa positive) और वर्णवाहक (chromatophores ) डोपा नास्यात्मक ( dopa negative ) होते हैं।
कभी-कभी काल्यर्बुद के एक भाग में रंग होता है और दूसरा भाग वर्ण हीन होता है। रंग युक्त कोशाओं से रंग निकल पड़ता है और उसे भतिकोशा उदरस्थ कर लेते हैं।
काल्यर्बुद के द्वारा स्थानिक कोई विशेष विकृति उत्पन्न नहीं होती अपि तु इसके द्वारा उत्पन्न विस्थाय बहुत विस्तृत होते हैं और प्राणनाश के कारण होते हैं । अर्बुद कोशाओं का प्रसार लसवहाओं द्वारा होता है जहाँ से वे प्रादेशिक लसग्रन्थकों को जाते हैं। आगे रक्तवाहिनियां इनका प्रसार करके इन्हें दूरस्थ स्थानों तक पहुँचा देती हैं। नेत्रीय काल्यर्बुद का प्रसार लसवहाओं द्वारा नहीं हो पाता । लसवहाओं के द्वारा ही मुख्यतया इसका प्रसार होने से उस क्षेत्र की लसग्रन्थियाँ बढ़ने लगती हैं । रक्त के द्वारा प्रसार कार्य बाद में होता है कभी-कभी तो मृत्यु होने तक वह नहीं भी होता। पर जब रक्त द्वारा प्रसार होता है तो यह इतना विस्तृत होता है कि कदाचित् ही कोई अंग बच पाता हो। स्वचा विस्थायोत्पत्ति की मुख्य भूमि है। विस्थाय सर्व
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