SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 927
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ८४२ . विकृतिविज्ञान अस्थ्यर्बुद का अस्थिपदार्थ दोनों प्रकार का पाया जा सकता है-एक जो संघन ( compact ) या हस्तिदन्त ( ivory ) के समान कहलाता है और दूसरा जिसे छिद्रिष्ठ ( cancellous ) कहा जाता है । इन्हीं दो प्रकारों के आधार पर अस्थ्यर्बुद भी दो प्रकार का ही होता है। संघन या हस्तिदन्त अस्थ्यर्बुद सदैव अस्थि को पर्यस्थ से उत्पन्न होता है। यह साधारणतया करोटि ( skull ) के बाह्य या आन्तर धरातल से प्रकट होता है। अक्षिगुहा उसका एक प्रिय स्थल है। इनके अतिरिक्त अंसफलक, श्रोणिफलक तथा ऊर्ध्व और अधो हन्वस्थियों में भी यह मिल सकता है। हनुओं में यह दन्तपर्यस्थ से उत्पन्न होता है और दन्तास्थ्यर्बुद ( dental osteoma) कहलाता है। संघन अस्थ्यर्बुद जिस अस्थि से उत्पन्न होता है उससे सातत्य रखता है । यह विस्तृत आधार युक्त, गोलाई लिए हुए, कम ऊँचा और चिकना होता है जिसके ऊपर पर्यस्थ उसी प्रकार चढ़ी होती है जिस प्रकार किसी अन्य अस्थि पर चढ़ी हो। समीप की ऊति की अपेक्षा यह पर्याप्त स्पष्ट होता है। अण्वीक्षण करने पर एक हस्तिदन्त अस्थ्यर्बुद के अस्थिपत्र ( lamellae ) संकेन्द्र विन्यस्त (concentrically arranged ) होते हैं। ये अस्थिपत्र अर्बुदीय धरातल के समानान्तर होते हैं। इसमें छिद्रिष्ठ उति का अभाव होता है और हैवर्सियन कानाल छोटे और कम होते हैं। __छिद्रिष्ठ अस्थ्य र्बुद यह अस्थ्यर्बुद का दूसरा प्रकार है। इसकी रचना देखने से ऐसा मालूम होता है मानो कास्थ्यर्बुद का ही अस्थीयन हो गया हो क्योंकि इसकी उत्पत्ति लम्बी अस्थियों के अस्थिशिरीय भाग तथा अस्थिदण्ड के संगम से होती है। यह और्वी अस्थि के निचले भाग में या प्रगण्डास्थि और जंघास्थि के ऊपरी भाग में विशेष करके बनता है। यह पर्याप्त आगे को निकला हुआ थोड़ा या बहुत सशाख होता है और जब तक इसमें बढ़ने की क्षमता रहती है तब तक इसके ऊपर कास्थि की एक टोपी चढ़ी होती है। जब यह टोपी भी अस्थीयित हो जाती है तभी इस अर्बुद की वृद्धि रुक जाती है। कटे हुए क्षेत्र को देखने से पता लगता है कि यह अर्बुद अस्थि के उस भाग से सातत्य रखता है जहाँ से इसकी उत्पत्ति होती है । यह चारों ओर संघनित अस्थि के एक पतले स्तर द्वारा आवृत रहता है। उसके भीतर के मजकीय अवकाश में भ्रौणिकीय, तान्तव या स्नैहिक ऊति का वास रहता है। अस्थ्यर्बुद में तथा साधारण कास्थि के स्वाभाविक रूप में अस्थीयित हो जाने में बहुत अन्तर होता है। पर्युकीयकास्थि, स्वरयन्त्रीय कास्थियाँ आदि समय पाकर अस्थीयित तो हो जाती हैं परन्तु वे अस्थ्यर्बुद बन जाती हों ऐसा नहीं। सन्धिपाक या अन्य व्रणशोथात्मक स्थितियों में कभी कभी सन्धिगुहा अथवा अस्थियों में अस्थीयन का क्षेत्र बढ़ जाता है। वह भी अस्थ्यर्बुद से भिन्न वस्तु है और उसका ध्यान प्रत्येक वैकारिकी विशारद को रखना आवश्यक है। कहीं कहीं किसी किसी स्थल का चूर्णीयन हो जाता है पर अस्थि नहीं बनती। ऐसी दशाओं और अस्थ्यर्बुद में भी अन्तर समझे रहना आवश्यक होता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy