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विकृतिविज्ञान
का पहुँचना रुक जाता है और एक प्रकार की अल्परक्तता वहाँ आ जाती है जो इस परिवर्तन की मुख्य विधायिका मानी जाती है । पर यह प्रमाण पूर्णसन्तोषजनक नहीं माना जा सकता क्योंकि गर्भता के अतिरिक्त भी तो यह मिलता है ।
सौ में दो तन्तुरूप ( fibroids ) मारात्मक रूप धारण करते हुए पाये जाते हैं । तन्तुरूप या तो तन्तुसंकटार्बुद का रूप धारण करता है अथवा तर्कुरूप संकट बनता है । मारात्मक रूप के साथ साथ अन्य विहासात्मक स्वरूप भी देखे जा सकते हैं ।
तन्खर्बुद के जितने स्थान अभी तक बतलाये गये हैं उनके अतिरिक्त जहाँ भी तान्तव ऊति पाई जाती है वहाँ ही यह उत्पन्न हो सकता है । मुख्य स्थलों का वर्णन किया जा चुका है। गौण स्थलों में एक वृक्कस्थ तन्त्वर्बुद है । वृक्क में तन्वर्बुद तभी होगा जब उसके स्वाभाविक विकास में ही कोई मौलिक बाधा उत्पन्न हो जावेगी । इसी कारण कुछ लोग इसे तन्त्वर्बुद न कह कर त्रुटयर्बुद ( haemartoma ) कहते हैं । यह वृक्क के स्तूप (pyramid ) या पिण्डिका ( papilla ) में छोटे गोल ग्रन्थक के रूप में पाया जाता है । अन्ननलिका में जो तन्त्वर्बुद बनते हैं वे पुर्वंगक का रूप धारण कर लेते हैं । आँतों के अन्दर भी उनका पुर्वंगक रूप ( polypus ) हो जाता है । बालकों के स्वरयन्त्र में नालरहित शोणसंयोजी ऊति का तन्त्वर्बुद बन जाता है ।
विमेदार्बुद
(Lipoma )
यह एक प्रकार का साधारण, अदुष्ट, हानिरहित प्रकार का मेदसंचायिका योजी ऊति से बनने वाला अर्बुद है । इसे मेदोर्बुद नाम से आयुर्वेदज्ञ पुकारते हैं । यह देखने में स्वाभाविक मेद जैसा ही लगता है अन्तर केवल यही होता है कि यह उससे कुछ श्वेततर ( paler ) तथा खण्डिकाओं में विभक्त पाया जाता है । ये खण्डिकाएँ योजी aa द्वारा निर्मित होती हैं । सम्पूर्ण अर्बुद के चारों ओर एक तान्तव प्रावर चढ़ा होता है जो पर्याप्त सघन होता है । प्रावर के नीचे एक कोमल पतली कला की चादर छाई रहती है । प्रावर समीपस्थ ऊतियों के साथ घनिष्ठता के साथ बँधा होता है पर अर्बुद के साथ ढीला सा लगाव रखता है । इसी कारण प्रावर में से यह सरलतया उच्छेदित किया जा सकता है । प्रावर में होकर हाथ से अर्बुद को इधर उधर हिलाया डुलाया भी जा सकता है । यह अर्बुद मारात्मक कभी नहीं होता । इस अर्बुद का संधार तान्तव होता है तथा इसको रक्त बहुत ही कम मिल पाता है । रक्त की वाहिनियाँ प्रावर में से एक खास स्थान में होकर पहुँचती हैं। विमेदार्बुद सदैव उपस्वगीय स्नैहिक ऊति में बना करते हैं। वे अकेले या अनेक दोनों रूपों में पाये जाते हैं । उपत्वगीय ऊति के अतिरिक्त अन्य स्थलों में भी ये बन सकते हैं। स्थिति के अनुसार इनके ८ भेद भी किये गये हैं-
१. उपस्वगीय विमेदार्बुद ( subcutaneous lipoma ) २. उपश्लैष्मिक विमेदार्बुद ( submucous lipoma ) ३. उपलस्य विमेदार्बुद ( subserous lipoma )
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