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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ७७४ विकृतिविज्ञान कारण यही है कि पुरुष में स्तन ऊति अत्यल्प होती है एवं रक्तवाहिनियाँ भी कम रहती हैं। कक्षास्थ लसग्रन्थियों पर प्रभाव तथा विस्थायोत्पत्ति स्त्रीस्तनीय कर्कट के तुल्य ही होती है। अधिच्छदीय ऊति के साधारण अर्बुद अधिच्छदीय ऊति के दुष्ट अर्बुद कर्कट का विस्तृत विवेचन करने के उपरान्त अब हम इसी उति के साधारण अर्बुदों का वर्णन उपस्थित करते हैं। अधिच्छदीय कोशाओं से प्रकट होने वाले अर्बुद जितने स्पष्ट होते हैं उतने संयोजी ऊत्युत्थ अर्बुद नहीं देखे जाते । इसका मुख्य कारण यह है कि उनमें दो ऊतियों के घटक मिले रहते हैं । अर्थात् अधिच्छदीय अर्बुदिक कोशा तथा संयोजी ऊतीय संधार । यह संधार अधिच्छदीय कोशाओं को साधे रहता है तथा उनको रक्त पहुँचाता है। यही कारण है कि अधिच्छदीय अर्बुदों का एक निश्चित रूप बनता है जो उनके अधिक दुष्ट होने की दशा में ही बिगड़ता है अन्यथा नहीं। साधारण अधिच्छदीयार्बुद दो प्रकार के होते हैं: १. अङ्कुरार्बुद ( papilloma ) तथा २. ग्रन्थ्य र्बुद ( adenoma.)। अब हम सबसे पहले अङ्कुरार्बुद का वर्णन प्रकट करेंगे तत्पश्चात् ग्रन्थ्यर्बुद लेंगे। चर्मकील या अंकुरार्बुद ( Papilloma) अङ्कुरार्बुद एक प्रकार का साधारण अर्बुद होता है जिसमें अधिच्छदीय कोशा अंगुलि. समान उगे हुए संधार के अंकुरों को आच्छादित किए हुए देखे जाते हैं। यह अर्बुद बाहरी ( उपरिष्ठ) या भीतरी (आन्तरिक ) धरातल से उगता है। अङ्कुरार्बुद कहने से सदैव साधारण अर्बुद प्रतिभासित होता है परन्तु मलाशय और बस्ति प्रदेश में स्थित अंकुरार्बुद दुष्ट रूप भी धारण कर लेता है। धरातलीय अधिच्छद से ही सदैव यह अर्बुद उत्पन्न होता है। इसका नाम यह इसलिए रक्खा गया है क्योंकि यह प्रवृद्ध अंकुर के समान दिखलाई देता है । इसका एक नाम चर्मकील भी है । बाहरी तल पर उत्पन्न अङ्कुराबंद चमकील और भीतरी तल पर उत्पन्न अन्तश्चर्मकील कहलाता है। प्रत्येक अंकुराबुंद में एक केन्द्रिय तन्तुवाहिनीय आन्तरक (fibro vascular core ) होता है उसी से धरातल के लिए अनेक अंगुलिसम अंकुरीय प्रवर्धनक निकलते हैं जिनमें से प्रत्येक रक्तवाहिनियों को सहारा देता है ये रक्तवाहिनियाँ केशालजालों ( capillary network ) में या एकल पाश ( single loop ) में समाप्त हो जाती हैं और यह सब का सब परमघटित अधिच्छद द्वारा आवृत रहता है। ये अधिच्छदीय स्तर कितने ही स्थूल क्यों न हों वे एक स्वाभाविक रूप से प्राप्त अधःस्तृत कला पर स्थित रहते हैं। यह अधःस्तृत कला जहाँ-जहाँ होती है वहाँ-वहाँ ये स्तर उस पर रहते हैं। यह कला उन्हें नीचे की अन्य उतियों से पृथक कर देती है। साधारण अंकुराबूंदों में अधःस्तृत कला सदैव अस्फुटित ( intact ) रहती For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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