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अर्बुद प्रकरण
७६३ में आता है। यह रजोनिवृत्तिकाल में उत्पन्न होता है। जब किसी रजोनिवृत्त स्त्री के गर्भाशय से रक्तस्राव होने लगे तो गर्भाशयकर्कट का भी स्मरण आ जाना चाहिए। इसका ग्रीवाकर्कट के बराबर अन्तराभरण नहीं होता। स्त्री का प्रजावती होना इस रोग में आवश्यक नहीं क्योंकि यह अप्रसवाओं ( nullipara ) में जितना मिलता है इतना बहुप्रसवाओं में नहीं।
गर्भाशयकायाकर्कट गर्भाशय के अन्तश्छद में उत्पन्न होता है और चारों ओर बहुत बड़े क्षेत्र में अन्तश्छद के उपरिष्ठ भाग में ही फैल जाता है। इसका स्वरूप अंकुरीय होता है जिससे यह गर्भाशय गुहा के अन्दर खूब जगह लेकर फैलता फूटता है। इसके कारण गर्भाशय थोड़ा फूल जाता है। इसमें ग्रीवा पर कोई प्रभाव नहीं पड़ता । धीरे-धीरे वह पेशीय स्तर तक भी पहुँच जाता है। इस कर्कट में परागर्भाशय प्रारम्भ में आक्रान्त नहीं होता जैसा कि ग्रेविक कर्कट में देखने में आता है। खुरचन या विलेखन ( curettage ) द्वारा इस कर्कट का पता लगता है। ____ अण्वीक्षण करने पर जो चित्र मिलता है वह ग्रन्थिकर्कट का चित्र होता है जिसमें विषम दुष्ट नालिकाएँ पाई जाती हैं जो पेशीय भाग में धंसती हुई देखी जाती हैं। कभी-कभी सम्पूर्ण रचनाविहीन अनघटित क्वचित् ग्रन्थीय मात्र देखा जाता है । केवल अन्तश्छदीय खुरचन द्वारा कर्कट का पूर्ण ज्ञान नहीं हो पाता क्यों कि नवीन दुष्टवृद्धि अन्तश्छदीय परमचय मात्र होती है । अभिरंजन की विषमता, विभजनांकों का बाहुल्य और अन्तराभरण का प्रमाण मिलने से ही ठीक-ठीक निदान हो पाता है। यहाँ औतिकीय चित्र की अपेक्षा कोशीय चित्रान्वेषण द्वारा रोग का ठीक पता चलता है। यदि वैकारिकीविशारद को भ्रम हो तो निस्सन्देह गर्भाशय कर्कट नहीं है, ऐसा मान लेना चाहिए। ___ इस रोग का प्रसार पेशीय प्राचीर द्वारा होता है । इसके कारण छिद्रण हो सकता है। कर्कट के खण्ड गर्भाशय नालिकाओं में होकर बीजकोशों तक को आक्रान्त कर सकते हैं । इसीलिए गर्भाशय का उच्छेद करते समय इस रोग की चिकित्सा में वैज्ञानिक बीजकोषों को भी निकाल देने की सलाह देते हैं। आगे चलकर लसधारा द्वारा परा कशेरुकीय लसग्रन्थकों तथा रक्तधारा द्वारा फुफ्फुसों तथा यकृत् तक प्रभाव हो सकता है।
३-जराय्वधिच्छदार्बुद (Chorionepithelioma )
यह परम दुष्टार्बुद है। यह भ्रौण ऊति द्वारा उत्पन्न होता है, मातृ ऊति द्वारा नहीं। किसी स्त्री को जब गर्भपात हो जाता है तो उसके पश्चात् या कभी-कभी पूर्ण प्रसव होने के उपरान्त भी यह देखा जाता है। बहुत ही कम यह बीजकोषों तथा वृषणों में भी देखा गया है। इसका निर्माण ३० प्रतिशत रुग्णों में द्राक्षारूपीशूक (hydatidiformmole) के द्वारा होता है। द्राक्षारूपीशूक और जराय्वधिच्छदार्बुद दोनों उसी दशा में देखे जाते हैं जब कि पीतपिण्ड (corpus luteum) पर्याप्त प्रवृद्ध हो। पीतपिण्ड और इन दोनों का
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