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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्बुद प्रकरण आधुनिक खोज इस तथ्य पर पहुँचाती है कि अष्ठीला ग्रन्थि की साधारण वृद्धि अन्तःस्रावी ग्रंथियों की असन्तुलित अवस्था पर निर्भर करती है। साथ ही कर्कटोत्पत्ति के प्रकरण में न्यासर्गीय अभिकर्ताओं ( hormonal agents ) का वर्णन करते हुए हम यह लिख चुके हैं कि काम सान्द्राभों ( sex-steroids ) के द्वारा भी कर्कटोत्पत्ति हो सकती है । इधर हम यह भी देखते हैं कि यदि किसी व्यक्ति का अण्डाकर्षण ( castration ) कर दिया जावे तो उसकी अष्ठीलाग्रंथि में उत्पन्न हुए कर्कट की वृद्धि रुक जाती है। अगर इस ग्रन्थि के कर्कट से पीड़ित व्यक्ति को स्त्रीसान्द्रव (stilboesrtol) का उपयोग कराया जावे तो भी कर्कट समाप्त हो जाता है। इन तथ्यों से हम इस निर्णय पर सरलता से पहुँच सकते हैं कि पुंसवीय असन्तुलन ( andro. genous imbalance ) के कारण सब नहीं तो कुछ अवश्य ही अष्ठीलाग्रन्थिकर्कटों की उत्पत्ति होती है। यही एक ऐसा कर्कट है जो अन्तःस्रावी पदार्थों के द्वारा चिकित्स्य है। हगिन्स और उसके सहकारियों ने भास्वेद ( phosphatase ) नामक विकर ( enzyme ) पर परीक्षण किये हैं। यह भास्वेद क्षारीय और आम्लिक करके दो प्रकार का होता है। क्षारीय भास्वेद अस्थिरूहों द्वारा बढ़ती हुई अस्थियों में बनता है। आम्लिक भास्वेद अष्ठीलाग्रंथि में बहुतायत से मिलता है । जब अष्ठीलाग्रन्थिकर्कट के विस्थाय अस्थि तक पहुँचते हैं तो भास्वेद की मात्रा रक्त में बढ़ जाती है। आम्लिक भास्वेद को अष्ठीलाग्रंथि का अधिच्छद बनाता है तथा कर्कट उत्पन्न होने पर उसकी मात्रा और भी बढ़ जाती है। अस्थि में विस्थाय होने पर रक्तरस में इसकी मात्रा बहुत अधिक बढ़ जाती है। उक्त विद्वानों का कथन है कि जब १०० घ० श. मा० रक्त में १० एककों से अधिक आम्लिक भास्वेद बढ़ जावे तो अष्ठीलाग्रन्थिकर्कट की सम्भावना निश्चित ही बतलाई जा सकती है। पर सदैव ही यह वृद्धि हो यह आवश्यक नहीं। आम्लिक भास्वेद अष्ठीलाग्रन्थि में कर्कट करने का न तो हेतु ही है और न उसको पहचानने का प्रमुख साधन । क्योंकि यह तो उसी अवस्था में बढ़ता है जब अस्थि तक विस्थाय बढ़ गया हो। जब तक अस्थियाँ आक्रान्त नहीं होती इसकी वृद्धि नहीं होती। यह कर्कट ग्रन्थि के पश्चभाग में होता है इस कारण मूत्रमार्ग में अवरोध या मूत्रकृच्छ्रता नहीं होती। प्रारम्भ में चुपचाप वृद्धि होती है। कटिप्रदेशीय कशेरुकाओं या सिराओं के ग्रसित होने से सबसे पहला लक्षण कटिशूल का मिलता है। वैकारिक अस्थिभग्न, ऊर्वस्थिशीर्ष या प्रगण्डास्थिशीर्ष या पर्युका में शूल मिल सकता है वे सूज भी सकती हैं। बस्तिमूल के आक्रान्त होने पर बस्तिपाक और रक्तमेह देखा जा सकता है। ग्रीन का कथन है कि जो वृद्ध पुरुष कटिशूल, गृध्रसी, तान्तवपाक या सन्धिवात के शूल बतलाते हैं उन्हें पुरःस्थग्रन्थिकर्कट हो सकता है, इसे न भूला जावे। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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