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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विकृतिविज्ञान को उपसृष्ट कर देता है जिसके कारण ग्रीवास्थ ग्रन्थियाँ फूल जाती हैं। नासाग्रसनी क्षेत्र में स्थित रहने से इस व्याधि का निदान ठीक-ठीक होना बहुत दिनों तक रुका रहता है। आगे चलकर फुफ्फुस यकृत् आदि अंगों तक को यह उपसृष्ट करने में समर्थ हो जाता है। अण्वीक्षण करने पर इसके कोशा बड़े और पाण्डुर होते हैं उनकी वही सीमा अस्पष्ट और असीमित होती है। वे स्तारों ( sheets ) में विन्यस्त होते हैं । यहाँ पर अधिच्छदीय कोशा और नीचे स्थित लसाभ ऊति से आगत लसीकोशा दोनों ही पर्याप्त मिलते हैं। ___ जब अर्बुद पूर्णतः अधिच्छदीय होता है तो उसे अन्तर्वर्तीकोशीय कर्कट ( Transitional-cell carcinoma) कहते हैं सूत्रिभाजना यहाँ पर्याप्त होती है। इसमें कुछ प्रवृत्ति विभिन्नन की भी होती है जिससे शल्ककोशीय लक्षणों का भी आभास आने लगता है। कभी-कभी अघटन (anaplasia) भी होता है जिसके कारण सम्पूर्ण चित्र लसीक संकटार्बुद से मिलता जुलता बन जाता है । अधिचर्माम कर्कट की अपेक्षा यह कर्कट विकिरण द्वारा ठीक होने की पर्याप्त प्रवृत्ति रखता है। इसे हम सारांश में गले का अघटित कर्कट (anaplastic tumour of the throat ) कह सकते हैं। स्तम्भकोशीय कर्कट (Columnar-celled Carcinoma ) ये अर्बुद अनेक शरीरस्थ ग्रन्थियों के द्वारा रचे जाने के कारण तत्तत् ग्रन्थि की रचना के अनुरूप इनके विविध स्वरूप देखने में आते हैं। स्तम्भकोशा स्तन, श्लेष्मग्रन्थियों आदि में गतों (acini ) या प्रणालियों ( tubules ) का निर्माण करते हैं। अवटुकाग्रन्थि में कोष्ठों को बनाते हैं तथा वहीं पर ठोस कोशापुञ्ज का रूप धारण करते हैं जैसा कि संपीडित बाह्यकों में देखा जाता है। कहीं-कहीं दुष्टार्बुदों में इनका संयुक्त रूप देखने में आता है। यकृत् में हम ठोस कोशापुंज भी देखते हैं और प्रणालियाँ भी। वृषणों और सर्वकिण्वी में कर्कट होने पर प्रणालियाँ, गर्त तथा ठोस भाग तीनों देखे जाते हैं। हम साथ के एक चित्र से यह बतलाते हैं कि एक ग्रन्थीय रचना से किस प्रकार अनेक प्रकार के कर्कट उत्पन्न होते हैं। ग्रन्थीय प्रकार के कर्कट का औतिकीय चित्र बहुधा ऐसा हुआ करता है कि जिस ऊति से अर्बुद बनता है उसकी पहचान बहुत सरलता से कर ली जाती है । परन्तु जब अनघटन या अचय (anaplasia) अत्यधिक होता है तब विभेदक लक्षणों का अभाव हो जाने के कारण उति का पता लगाना बहुत कठिन हो जाता है। इन पिछले प्रकार के अर्बुदों को गोलाभकोशीय कर्कटश्रेणी में सरलता से लाया जा सकता है। इस दृष्टि से स्तम्भकोशीय तथा गोलाभकोशीय वृद्धियों में कोई विशेष विभेदक रेखा खिंची हुई नहीं पाई जाती। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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