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अर्बुद प्रकरण
७१३ जाती है और उसकी गाढता क्रीम के समान हो जाती है। रक्तस्राव, रंगायण, श्लेष्माभ विहास, श्लेषाभ विहास आदि परिवर्तनों के कारण कोष्ठनिर्माण (cyst formation ) होने लगता है। कभी-कभी प्रणालिकाओं के मुख बन्द होने के कारण भी कोष्टनिर्माण हो जाते हैं। ऐसा स्तनों के कर्कट में देखा जाता है। चूर्णीयन तथा अस्थीयन बहुत ही कम देखे जाते हैं।
कर्कट का विस्तार कर्कट का विस्तार या प्रसार ५ प्रकार से हो सकता है:(१) स्थानीय अन्तराभरण द्वारा। (२) लसीक अन्तःशल्यता द्वारा। (३) लसीक अतिवेधन द्वारा। (४) रक्तप्रवाह द्वारा। (५) उदरच्छद द्वारा।
एक स्थान पर कर्कटोत्पत्ति हो जाने पर समीपस्थ स्थानिक ऊतियों में कर्कट कोशा भरमार करने लगते हैं और ऊति का विनाश करते चले जाते हैं। कर्कट स्थल से कोशासमूह टूट टूट कर लसधारा में चले जाते हैं और फिर समीगतम लसकग्रन्थि में पकड़ जाते हैं जहाँ या तो वे विनष्ट कर दिये जाते हैं या फिर वहाँ उनकी जड़ जम जाती है और वहाँ उत्तरजात वृद्धि होने लगती है। इस रीति को लसीक अन्त:शल्यता द्वारा कर्कट विस्तार कहा जाता है। लसीक अतिवेधन में यह होता है कि लसीक वाहिनियों के साथ-साथ दुष्ट कोशाओं के स्तम्भ उगने लग जाते हैं। वृक्क, श्वसनकनाल और अधिवृक्क में छोड़कर सर्वत्र रक्त द्वारा अर्बुद विस्तार बहुत विलम्बित घटना हुआ करती है। आमाशय या महास्रोत के अर्बुद जो आन्त्रप्राचीर से उत्पन्न होते हैं वे उदरच्छद में घुस कर उदरच्छदगुहा में अपने कोशाओं को मुक्त कर देते हैं। जिसके कारण बीजग्रन्थि तथा श्रोणिस्थ अंगों में विस्थायी अर्बुद बन जाया करते हैं।
विस्तार के इतने उपार्यों में लसीकीय विस्तार सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। लसीकाग्रन्थियाँ अर्बुदों के कारण बढ़ जाती हैं। उनकी यह वृद्धि उनमें जीर्ण व्रणशोथ की उपस्थिति के कारण होती है। विस्थायी अर्बुदोत्पत्ति के कारण फौरन ही ग्रन्थियों में वृद्धि नहीं हुआ करती । जब लसवहाओं का अत्यधिक वेधन होता और उनका मार्ग रुक जाता है तो उस क्षेत्र में शोफ हो जाता है। शोफ के बाद तान्तव ऊति का परमचय होने लगता है जिससे प्रभावित क्षेत्र स्वाभाविक से कहीं अधिक कड़ा हो जाता है। नारंगी पर जैसी झुर्रियाँ पड़ जाती हैं वैसी ही त्वचा के ऊपर दिखाई देती है। अधिक विस्तृत क्षेत्र प्रभावित होने पर वहाँ का बाह्य और गम्भीर सभी भागों की लसवहाओं का अवरोध दुष्ट कर्कट कोशा कर देते हैं।
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