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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्बुद प्रकरण ७०३ प्रविकिरण के प्रति हृषता एक बात है और साध्यता दूसरी बात है । अत्यधिक दुष्ट अर्बुद तेजोहृष अत्यधिक होते हुए भी अपने स्थान से नष्ट कर दिये जाते हैं परन्तु उनके द्वारा उत्तरजात वृद्धियों की उत्पत्ति जो पहले से ही हो जाती है व्यक्ति को मार डालती है। इसके उदाहरण लससंकटार्बुद तथा अस्थि का ईविंगार्बुद (Ewing's tumour of bone ) हैं। वृषण के मिश्रित अर्बुद में जिसे संयुक्तार्बुद या भ्रौणार्बुद ( teratoma ) कहते हैं जिसमें श्रौणिकीय तथा प्रौढ़ दोनों प्रकार की ऊतियाँ भाग लेती हैं। प्रविकिरण से प्रथम ऊति खतम हो जाती है परन्तु द्वितीय ज्यों की त्यों रहती है इसलिए यद्यपि प्राणिशास्त्रदृष्टया परिवर्तित होने पर भी अर्बुद के आकार में कोई परिवर्तन नहीं हुआ करता। संधार-यदि संधार सघन हो जैसे कास्थि या अस्थि का तो प्रविकिरण का कम प्रभाव हो पाता है। यही कारण है कि अस्थि का अस्थिजनक संकटाबंद जिसमें संधार पर्याप्त होता है प्रविकिरण प्रतिरोधी होता है। पर यदि निरन्तर प्रविकिरण किया जावे तो विस्थायी अर्बुदों की उत्पत्ति कदाचित् कम हो जावे। ईविंग का अस्थ्यर्बुद तथा अन्य तेजोहष अर्बुदों में जो अत्यधिक तेजोहृष होते हैं संघार बहुत कम पाया जाता है। अर्बुदशैया की प्रकृति-यदि कर्कट कोशा स्नैहिक अति या अस्थि में चले जाते हैं तो प्रविकिरण का कोई विशेष प्रभाव नहीं पड़ता। उपसर्ग-अर्बुद में उपसर्ग लगने से वह अधिक प्रविकिरण प्रतिरोधी बन जाता है। दूसरे प्रविकिरण उपसर्ग के प्रति रहने वाले प्रतिरोध को भी समाप्त कर देता है। मलाशय के कर्कट का अधिकांश भाग यदि न निकाल कर प्रविकिरण किया जावे तो प्रविकिरण के कारण उपसर्ग के प्रति औदासीन्य की स्थिति भयंकर परिणामोत्पादिका बन जाती है। अवाप्त प्रतिरोध-यदि अपर्याप्त मात्रा में प्रविकिरण किया जावे तो अर्बुदीय कोशा प्रविकिरण प्रतिरोधी हो जाया करते हैं। अतः पर्याप्त मात्रा में प्रविकिरण करना आवश्यक होता है। तेजोहृषता की दृष्टि से पुष्ट अर्बुदों को ३ श्रेणियों में विभक्त किया जा सकता है:१. अत्यधिक तेजोहृष अर्बुद-लससंकटाबुद, बहु अस्थिमजकार्बुद, लस अधि च्छदार्बुद, भ्रौणकर्कट । २. मध्यम तेजोहष अर्बुद-अधिचर्माम कर्कट, साधारण कर्कट, दोनों में अन घटन की मात्रा का विचार आवश्यक है। ३. अत्यधिक प्रविकिरण प्रतिरोधी-तन्तुसंकटार्बुद, अस्थिसंकटार्बुद, वातसंकटार्बुद, काल्यर्बुद, श्लेषार्बुद, अवटुकीय ग्रन्थिकर्कट को छोड़ शेष सभी ग्रन्थिकर्कट । केवल अण्वीक्षीय अर्बुद चित्र को देख कर तेजोहृषता का पता लगाना लाभदायक नहीं। इसके लिए तो अर्बुद के स्थूल चित्र का विचार होना आवश्यक है शरीर में For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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