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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir अर्बुद प्रकरण ६७५ . रचना में विभिन्नन की अपूर्णता के कारण दुष्ट अर्बुदों में कोशाओं की क्रिया शक्ति ( functional activity ) कम हो जाती है। साथ ही अनृजु वृद्धि जो उनमें निरन्तर चलती रहती है उसका उन पर आधिपत्य हो जाता है। यद्यपि उति के कोशाओं के रूप के लगभग समान रूप वाले ये दुष्टार्बुदिक कोशा बनते हैं परन्तु अति कोशा के स्वाभाविक स्वरूप से वे बहुत नीचे होते हैं। दुष्ट अर्बुदीय कोशाओं में आपस में मिल जाने की एक प्रवृत्ति बहुत पाई जाती है जिसके कारण वे अपना व्यक्तित्व तक खो बैठते हैं। ऐसा लगता है मानो कि प्ररस की एक संकोशीय चादर ( syncitial sheet ) बन गई हो जिसमें अनेक न्यष्टियाँ छाई हुई हों। इसके ही कारण उनकी क्रियाशक्ति नष्ट हुई देखी जाती है। कुछ दुष्ट कोष्ठीय अबुंदों में संकोशीय चादर से कलिकासम प्रक्षेप ( bud like projections ) निकलते हुए देखे जाते हैं जो इङ्गित करते हैं कि अर्बुद की वृद्धि में कोशीय प्रगुगन के अतिरिक्त कोशीय प्रव्रजन ( cell migration ) भी आवश्यक होता है । रचना और विन्यास की दृष्टि से कोशाओं में जितना ही स्वाभाविक स्थिति की अपेक्षा अधिक हास देखा जावेगा उतना ही दौष्टय उनमें अधिक होगा। साधारण और दुष्ट इन दो रूपों में अबूंदों की गणना करना पूर्णतः स्वेच्छ (arbitrary ) है । क्योंकि कुछ ऐसे भी अर्बुद होते हैं जिन्हें न तो हम साधारण ही कह सकते हैं और न दुष्ट ही। निदान या औतिकीय सहायता दोनों में से किसी के द्वारा भी उन्हें हम इन दो में से किसी में रखने में असमर्थ हो जाते हैं। इसीलिए ग्रीन का कथन है कि साधारण और दुष्ट अर्बुदों के बीच में कोई एक रेखा नहीं खींची जा सकती। श्लेषार्बुद एक साधारण अबुंद है परन्तु वह प्रावरयुक्त नहीं होता। कृन्तकवण एक दुष्ट वृद्धि है परन्तु वह ग्रन्थियों में या कहीं अन्य भागों में उत्तरजात वृद्धियाँ उत्पन्न न कर केवल स्थानिक भाग में अन्तराभरण करती है। अङ्कुरार्बुद, ग्रन्थ्यबुंद, तथा तन्तुपेश्यर्बुद पहले साधारण अर्बुद के रूप में उत्पन्न होते हैं परन्तु कालान्तर में वे दुष्ट वृद्धियों में परिणत हो जाते हैं । किसी अर्बुद की दुष्टता निश्चित करने के लिए केवल उसकी औतिकी ( histology ) या कोशा-विन्यास (arrangement of cells) का विचार करना मात्र ही आवश्यक नहीं होना चाहिए अपि तु उसकी कौशिकी ( cytology ) को भी जानना आवश्यक होता है। इसका अर्थ यह है कि कोशा का लक्षण, उसकी न्यष्टि तथा निन्यष्टि ( nucleolus ) की प्रकृति का परिचय भी अत्यावश्यक होता है। कोशा का अत्यधिक महत्वपूर्ण कार्य है अपनी प्रोभूजिनों की पुनरुत्पत्ति करना । यह क्रिया न्यष्टि सम्पादित करती है । न्यष्टि में भी जिसे अभिवर्णि (chromatin ) कहते हैं उसमें निहित न्यष्टिपोभूजिन ( nucleo-protein ) यह कार्य करती हैं। पारजम्बु रंगावलीक्षा (ultraviolets pectroscopy ) द्वारा देखा गया है कि कर्कट कोशाओं में यह क्रिया बड़ी तेजी से चलती है। कर्कट में कोशाविभजन क्रिया की गति की वृद्धि का कारण सम्भवतः न्यष्टिकाम्ल चयापचय For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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