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विकृतिविज्ञान प्रसंग वश अब हम निम्न रोगों का वर्णन भी इसी अध्याय में करेंगे:१. अश्वग्रन्थि (Glanders) २. नासावृद्धि ( Rhino scleroma) ३. लसकणार्बुद (Lymphogranuloma) ४. बाह्यद्रव्य कणार्बुद ( Foreign body granuloma ) ५. नासाबीजाणूत्कर्ष ( Rhinosporidiosis ) ६. कालस्फोट ( anthrax )
अश्वग्रन्थि यह एक औपसर्गिक कणार्बुद होता है। जब यह अपनी जीर्णावस्था में होता है तब यह यक्ष्मा, फिरंग या कवक रोग में से किसी के लिए भी भ्रम उत्पन्न कर सकता है। यह रोग भी पशुओं से मनुष्य समाज में प्रवेश करता है। पशुओं में यह घोड़ों से प्रायः आता है इसी कारण साईसों तथा अश्वचिकित्सकों में यह बहुधा मिलता है। यही कारण है कि इसे अश्वग्रन्थि नाम से सम्बोधित किया जाता है।
इस रोग के कर्ता जीवाणु को सामान्य अश्वग्रन्थिकवक ( malleomyces 'mallei ) या अश्वग्रन्थिदण्डाणु ( bacillus mallei ) कहते हैं। यह यक्ष्मादण्डाणु से मिलता-जुलता पतला सुषवधाव्य (gramnegative ) कवक है।
उपसर्ग उपसृष्ट अश्व के नासानाव से हुआ करता है। यह स्त्राव त्वचा के किसी विदार में होकर या नासा की श्लेष्मलकला द्वारा मानवशरीर में प्रवेश पाता है। दो चार दिन से लेकर २१ दिन तक के संचयकाल के व्यतीत होने के उपरान्त इस रोग के प्रथम विक्षत प्रकट होते हैं। सर्वप्रथम एक उत्कण बनता है जो कुछ कालोपरान्त उत्पूय ( pustule ) बन जाता है।
इस रोग के विक्षत प्रसी और विनाशक होते हैं। इनके द्वारा बड़े-बड़े विषमाकृतिक व्रण बनते हैं। उपसर्ग लसवहाओं के मार्ग का अनुसरण करता है और उस मार्ग में गाँठदार सूजन ( nodular swelling ) उत्पन्न कर देता है । लसप्रन्थिका सूज जाती हैं तथा संयोजी ऊति और पेशी ऊति का विनाश होने लगता है। ___ अण्वीक्षण पर औपसर्गिक कणार्बुद जैसा चित्र मिलता है परन्तु किलाटीयन का अभाव देखा जाता है। महाकोशा भी बहुत ही कम और सो भी किसी-किसी में देखे जाते हैं । यह रोग वर्षों रह सकता है और अन्त में मृत्यु का कारण होता है।
इस रोग की एक तीव्रावस्था अश्व और मनुष्य दोनों में मिलती है जो एक प्रकार की रोगाणुरक्तता की स्थिति होती है। इसके कारण फुफ्फुसों, यकृत् , वृक्क इत्यादि में पूयिक विद्रधियाँ बन जाती हैं, यह अवस्था भी मारक होती है।
पशुओं में इस रोग के दो रूप देखे जाते हैं। एक रूप में उनकी नासा की
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