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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५८ फिरङ्ग शूल विरहित होती हैं और तब तक पूय न होने का उनमें कोई प्रश्न नहीं उत्पन्न होता जब तक कि प्राथमिक विक्षत पर पूयजनक द्वितीयक उपसर्ग और न लद जावे । इन ग्रन्थिकाओं का वेध (puncture ) करने से उनसे सुकुन्तलाणु पृथक् किए जा सकते हैं। ग्रीन लिखता है: "The presence of a painless genital sore, resistent to simple antiseptic treatment and accompanied by painless enlargement of the inguinal lymph glands is strongly suggestive of a primary syphilitic infection and should be regarded as such until it can be proved to be otherwise.' एक वेदनाशून्य उपस्थव्रण की उपस्थिति जो साधारण प्रतिपूयिक (antiseptic) उपचार का रोधक हो तथा जिसके साथ वेदनाशून्य वंक्षणीय लसग्रन्थिकीय प्रवृद्धि हो तो यह निश्चितरूपेण प्राथमिक फिरंगिक उपसर्ग की द्योतिका है जब तक कि इसके विपरीत सिद्ध न हो जावे । ___ शोणांशन फिरंग परीक्षा ( haemolysis test of syphilis ) जिसे वाशर मैन प्रतिक्रिया ( Wassermann's reaction ) कहते हैं कठिन संदंश के प्रकट होने के ३ सप्ताह उपरान्त अस्त्यात्मक (positive ) हो जाया करती है। यह अगले ६ मास में और भी तीन हो जाती है और अपना भूयिष्ठ ( maximum ) आभ्यन्तरफिरंग (द्वितीयावस्था) के मध्यकाल में प्राप्त करती है (स्टोक्स ।। संक्षेप में बाह्यफिरंग (प्रथमावस्था) के सम्बन्ध में निम्न स्मरणीय है :१-फिरंग के संचयकाल की समाप्ति पर एक गाँठ का उठना । २-धीरे धीरे गाँठ का बढ़ना और दुअन्नी के आकार की हो जाना। ३-मध्य की त्वचा के नाश के कारण व्रण बन जाना । ४-व्रण के चारों ओर १-३ मिलीमीटर का लाल वलय बन जाना। ५-व्रण में कठिनता की उत्तरोत्तर वृद्धि होना। ६-व्रण का पीडाशून्य होना । ७-व्रण का लेखन करने से रक्त का न निकलना अपि तु ऐसे लस का निकलना जिसमें असंख्य सुकुन्तलाणु होते हैं। ८-प्राथमिक व्रण बनने के १-२ सप्ताहोपरान्त बद ( bubo ) का बनना । बद लसग्रन्थियों की प्रवृद्धि का ही नाम है। बढ़ी हुई लसग्रन्थियाँ पृथक्-पृथक रहती हैं काँच की गोलियों जैसी कठिन तथा वेदनाशून्य होती हैं और कभी एक दूसरे के साथ अभिलग्न नहीं होती। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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