SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 646
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५७८ विकृतिविज्ञान उन विक्षतों के रस का किसी स्वस्थ प्राणी में अन्तःक्षेप कर दें तो उसको भी फिरंग का उपसर्ग लगता हुआ प्रत्यक्ष देखा जाता है । ___ प्रवेश के पश्चात् रोगोत्पत्ति करने में सुकुन्तलाणु १० से लेकर ४० दिन तक ले सकता है। कभी-कभी तो जब रोग अत्युग्र रूप में होता है तो तीसरे चौथे दिन ही उपसर्ग का पता लग जाता है । साधारणतः इसका संचयकाल ३ सप्ताह का माना जाता है। फिरंग नामक गन्धरोग जिस स्थान पर लगता है वह इसकी प्राथमिक नाभि होती है। वहाँ से यह रक्तधारा द्वारा शरीर की सम्पूर्ण अतियों तक जाता है। निदानविशारदों ने सुविधा के लिए उसको निम्न चार अवस्थाओं में माना है: 9-94AITEIT ( primary stage ) २-द्वितीयावस्था ( secondary stage ) ३-तृतीयावस्था ( tertiary stage) ४-चतुर्थावस्था ( quaternary stage) ये अवस्थाएँ विविध ऊतियों में विभिन्न विक्षतों की उत्पत्ति के अनुसार कही गई हैं। फिरंग की प्रथमावस्था का तात्पर्य है सुकुन्तलाणु के अन्तःक्षेप के स्थान पर विक्षत का होना । द्वितीयावस्था का अर्थ है सर्वाङ्गीण (generalised ) प्रतिक्रिया का सम्पूर्ण शरीर में होना। तृतीयावस्था में वाहिन्य विक्षत होते हैं तथा फिरंगार्बुद (gammata ) उत्पन्न हो जाते हैं तथा चतुर्थावस्था में केन्द्रिय वातनाडीसंस्थान ( central nervous system ) का क्रमिक नाश प्रारम्भ हो जाता है । इस अवस्था को पराफिरंग ( para syphilis ) भी कह सकते हैं । ये अवस्थाएँ कितने वेग से शरीर में प्रकट होती हैं यह सुकुन्तलाणु की उग्रता पर -निर्भर करता है। जितना ही उग्रजीवाणु होगा उतने ही शीघ्र ये अवस्थाएँ प्रकट ,, होंगी। चतुर्थावस्था को कुछ विद्वान् तृतीयावस्था के अन्तर्गत ही लेते हैं। फिरंगी की पहली अवस्था में रोग प्रायः बाह्य भाग में स्थित होता है। द्वितीया. वस्था में वह आभ्यन्तर प्रवेश करता है तथा तीसरी अवस्था में आभ्यन्तर और . बाह्य दोनों तरफ प्रकट हो जाता है। जब हम इन अवस्थाओं की विकृति को स्पष्ट करेंगे तब निस्सन्देह यह बात ठीक प्रकार से समझ में आ जावेगी पर इस समय हमारा कहने का तात्पर्य यह है कि आचार्य भावमिश्र ने फिरंग की इन्हीं तीन अवस्थाओं का वर्णन किया है। वे चौथी अवस्था को नहीं मानते तथा उसे तृतीयावस्था में ही सन्निहित समझते हैं। भावप्रकाश के कुछ टीकाकार जिन्हें आधुनिक फिरंग का ज्ञान नहीं हो सका इन तीन अवस्थाओं के वर्णन को तीन पृथक रोग लिखते रहे हैं । वे तीन रोग न होकर फिरंग की तीन पृथक्-पृथक अवस्थाओं का वर्णन है । भावमिश्र के अनुसार फिरंग की अवस्थाएँ निम्न प्रकार बतलाई गई हैं:फिरंगस्त्रिविधो ज्ञेयो बाह्य आभ्यन्तरस्तथा । वहिरन्तर्भवश्चापि तेषां लिङ्गानि च ब्रुवे ।। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy