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विकृतिविज्ञान प्रकृति का कोई पता नहीं चलता। उसका एक कारण यह भी है कि उपवृकग्रन्थियों उत्तरोत्तर छोटे आकार की होती चली जाती हैं। दोनों में से एक का हृस्वन कुछ अधिक वेग से होता है और दूसरे का कुछ धीरे-धीरे ।।
अब हम इस रोग के कुछ लक्षणों पर प्रकाश डालेंगे और उनका विक्षतों से जो भी सम्बन्ध जुड़ सकता है जोड़ देंगे। इस रोग में हमें निम्न लक्षण प्रायः मिलते हैं
१-दौर्बल्य या बलहानि (asthenia)-निरन्तर शारीरिक बल का स्रास होना अर्थात् मांसक्षय या मांसपेशियों का उत्तरोत्तर हास होना इस रोग काअति महत्व का लक्षण है जिसके कारण ही रोगी उत्तरोत्तर श्रान्त होता चला जाता है।
___२-महास्रोतीयदारुण्य (gastro-intestinal crises )-यह लक्षण रोग के प्रारम्भ काल से ही रहता होगा यह सत्य नहीं है। यह बहुत बाद में उठता है, इसमें वमन होना, अतीसार होना तथा उदरशूल होना मुख्य हैं। कभी-कभी तो उदरप्राचीर इतनी कड़ी और अनाम्य हो जाती है जैसी उदरच्छदपाक में प्रायः मिलती है।
महास्रोतीय दारुण्य के परिणामस्वरूप भारहास तथा खाद्यद्रव्यों और ओषधियों के परिपाचन में बाधा नामक दो उपद्रव और बढ़ जाते हैं।
३-पाण्डुरता ( pallor ) इस रोग की एक स्थायी घटना है। ४-अणुकोशीय अरक्तता ( microcytic anaemia) भी मिल सकती है।
५-षण्ढता (impotence ) पुरुष में नपुंसकता के साथ-साथ अण्डकोशों की अपुष्टि तथा स्त्री में अनार्तव ( amenorrhoea) तथा नपुंसकता देखी जाती है।
६-हृदय में बभ्रु अपुष्टि होने से वह छोटा होता चला जाता है। ७-शरीर की लसाभ उतियों में सामान्य परमचय मिलता है।
८-चर्म का रंजन ( pigmentation of the skin ) या जिसे कालि चर्म ( melanoderma) कहते हैं इधर बहुत होता है। यह न केवल चर्म पर ही अपि तु मुख और योनि की श्लेष्मलकला पर भी प्रभाव डाल देता है।
अब हम उपरोक्त लक्षणों के होने का कारण क्या है उसे स्पष्ट करेंगे। पाठकों को यह स्मरण रखना चाहिए एडीसनामय उपवृक्क ग्रन्थियों का रोग है और वह भी बाह्यक (cortex of the adrenal glands) का। इस बाह्यक से एक विशेष बाह्यकीय न्यासर्ग (cortical hormone) उत्सृष्ट होता रहता है। इस न्यासर्ग का एक महत्वपूर्ण कार्य है। वृक्त की नालिकाओं की श्वसनक्रिया को (जारक ग्रहण करने और देने की क्रिया को ) जारी रखना ताकि पुनर्वृषणक्रिया ( selective reab. sorption of threshold substances) को बराबर प्रचलित रखे । हमारे शरीर में जो जारण क्रियाएँ ( oxidative processes ) चला करती हैं उनका संयोजन जीवति ख२ ( vitamin B 2 ) होती है जिसका दूसरा नाम दुग्धपिंगी ( riboflavin ) है । यह दुग्धपिंगी को भी अपना कार्य करने के लिए इस बाह्यक न्यासर्ग की अतीव आवश्यकता रहती है । इस न्यासर्ग के इतने तथ्यों से परिचित करने के पश्चात्
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