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व्रणशोथ या शोफ
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blasts ) के साथ मिलकर तन्वि का अंशन ( fibrinolysis ) भी कर डालते हैं । जब पुरुन्यष्टिकोशाओं के द्वारा जीवाणुनाश कार्य नहीं हो पाता तब ये बहुत बड़ी संख्या में उत्पन्न होते हुए देखे जाते हैं । यही कारण है कि मन्थरज्वर ( typhoid fever ) में रक्त में इनकी संख्या बढ़ जाती है। इसी प्रकार जीर्ण व्याधियों में जब अत्यधिक ऊतिनाश होता रहता है जैसा कि यक्ष्मा या फिरंग में देखा जाता है तो रक्त में इनकी संख्या वृद्धि स्पष्टतः प्रकट हो जाती है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि व्रणशोथ की तीव्रावस्था में सूक्ष्मभक्ष पुरुन्यष्टिकोशाओं तथा महाभक्ष एकन्यष्टिकोशाओं के द्वारा जीवाणु संहार का अतीव महत्त्वपूर्ण कार्य सम्पन्न होता है । ज्यों ज्यों रोग की तीव्रावस्था समाप्त होकर जीर्णावस्था आती जाती है त्यों-त्यों अन्य प्रकार के कोशा भी रक्त में दृष्टिगोचर होने लगते हैं अब हम उन्हीं का वर्णन आगे करेंगे ।
लघुलसीकोशा —- यह एक गोल कोशा है जिसकी न्यष्टीला बड़ी सरलता से देखी जाती है जो सम्पूर्ण कोशा में व्याप्त होती है उस न्यष्टीला के चारों ओर प्रस की एक पतली पट्टी होती है । ये कोशा उपसर्ग की तीव्रावस्था समाप्त होते समय उत्पन्न होते हैं और रोग की जीर्णावस्था के प्रकटायक होते हैं विशेषकर यक्ष्मा तथा फिरङ्ग के । विषाणुओं के उपसगों में ये कोशा और एकन्यष्टिकोशा रोग की तीव्रावस्था में ही देखे जाते हैं, पुरुन्यष्टिकोशा बहुत कम दृष्टिगोचर होते हैं । यह कोशा क्या काम करते हैं ? इसका तो अभी तक विशेष ज्ञान नहीं हो पाया पर इतना ज्ञात अवश्य हुआ है कि ये कोशा एकन्यष्टिप्रोतिकोशाओं ( monocytic histiocytes ) में बदल जाते हैं । अहरिच और हरीश इस परिणाम पर पहुँचे हैं कि लसीकोशा और प्रतिद्रव्य निर्माण ( anti-body formation ) में परस्पर बहुत बड़ा सम्बन्ध है तथा प्रतिद्रव्यों को यथार्थतः ये कोशा बनाते ही हैं ।
उषसिरज्यकोशा ( eosinophil leucocytes ) - यह भी कामरूप्याभगतियुक्त ऐसा कोशा है जिसके कार्यों के सम्बन्ध में अभी पर्याप्त सन्देह है । ये जीर्ण रोगों में स्थानिक ऊतियों से उत्पन्न होने वाला कोशा है । यह कभी कभी तो बहुत बड़ी मात्रा में उत्पन्न हो जाते हैं। इसका एक उदाहरण पर्याप्त समय से व्रणशोथयुक्त अन्त्रपुच्छ में नये सिरे से पुनः रोग भड़क उठे ऐसे रोगी का है । चर्म में व्रणशोथग्रस्त क्षेत्रों के कारण स्थानिक उपसिप्रियता ( eosinophilia ) मिल सकती है । प्रजीवा ( protozoa ) या अन्त्रपराश्रयी जीवाणुजन्य रोग में भी उपसिप्रियता मिलती है । जब कृमि का उपसर्ग किसी को हो जाता है तो अन्त्र की श्लेष्मलकला में तथा रक्त में उपसिप्रियता बढ़ जाती है। श्वास ( ashtma ) रोग में ये कोशा थूक और कफ के अन्दर तक देखे जाते हैं ।
प्ररस कोशा ( plasma cells ) —- ये लसीकोशाओं से पर्याप्त बड़े होते हैं । इसके कोशा की न्यष्टीला गाड़ी के पहिये के समान बनी होती है । यह अनुतीव्र या
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