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विकृतिविज्ञान
फुफ्फुस की आकृति धूसर यकृद्रूपता ( gray hepatization ) से मिलती हुई होती है ।
जहाँ एक ओर फुफ्फुस का संपिंडन होता है वहाँ दूसरी ओर बाहर की ओर के विक्षत रोग को फैलाते हुए भी दीखते हैं । ये यच्मश्वसनी फुफ्फुसपाक ( tuberculous broncho pneumonia ) को प्रदर्शित करते हैं । ये विक्षत मिध्मों के रूप मैं इतस्ततः मिलते हैं । प्रत्येक सिध्म के केन्द्र में एक किलाटीयित श्वासनाली होती है जिसके चारों ओर फुफ्फुस का एक संपिंडित भाग रहता है ।
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संपिडित भागों में विवर ( cavities ) भी मिल सकती है पर ये तीव्र प्रकार के होते हैं जो तन्तुकिलाटीय यक्ष्मा के जीर्ण प्रकार के विवरों से भिन्न होते हैं । तीव्र प्रकार के विवरों का जीर्ण प्रकार के विवरों के बराबर आकार नहीं होता वे छोटे होते हैं। इसकी प्राचीरें मसृण न होकर चीरित ( ragged सीमित करने के लिए कोई तान्तवऊति का कटिबन्ध उनके है । फुफ्फुस यक्ष्मा में कांस्यक्रोड ( उरस्तोय ) तथा श्वसनिकापाक सदैव पाये जाते हैं। ये दोनों यहाँ भी अवश्य ही मिलते हैं । फुफ्फुसमूलीय लसग्रन्थिकाओं में भी किलाटीयन मिलता है क्योंकि फुफ्फुस में यमदण्डाणुओं को नियन्त्रित रखने के लिए आवश्यक प्रतीकारिता का बहुत अभाव रहता है ।
होती हैं तथा उनको चारों ओर नहीं रहता
एक वाक्य में यचमकिलाटीय श्वसन का अण्वीक्ष चित्र वर्णन यह है - 'एक व्रणशोथात्मक स्त्राव जो शीघ्र किलाटीय हो जाता है ।' अण्वीक्षण करने पर इस रोग कर्ष नहीं मिलता । कोशाओं से पूरित फुफ्फुस के वायु कोशाओं में कोई जालक तन्तु नहीं मिलते तथा प्रत्यास्थ तन्तु भी नहीं मिलते । महाकोशा या राक्षस कोशा जो शारीरिक प्रतिरोधक शक्ति के निर्देशक माने जाते हैं बिल्कुल नहीं होते या बहुत थोड़े होते हैं । झीलनीलसन पद्धति से इसके स्राव का काचपट्ट तैयार करके देखने पर उसमें असंख्य यचमादण्डाणु देखे जाते हैं । वायुकोशाओं को भरने वाले कोशा प्रसेकी ( catarrhal ) होते है । ये अधिच्छदीय आस्तरण से निर्मित न होकर जालकान्तश्छदीय संस्थान के प्रोतिकोशाओं ( histiocytes ) की ऊति द्वारा उत्पन्न होते हैं ।
तीव्रश्यामाकसम यम्मा
यह रोग तीव्र सर्वाङ्गीय यक्ष्मा ( acute generalised tuberculosis ) का ही एक भाग है जिसका वर्णन हमने पहले कर दिया है । यह रोग रक्तधारा द्वारा उत्पन्न होता है । ड यमदण्डाणुरक्तता ( tbbereculous bacillaemia ) तथा सामान्य श्यामाकसम यक्ष्मा दोनों का भेद समझने की सम्मति देते हुए लिखता है कि यह सम्भव है कि प्रत्येक सक्रिय यक्ष्मरोगी में दण्डाणु रक्तधारा द्वारा ही प्रवेश करें अर्थात् सवहाओं द्वारा महासिराओं में पहुँचाये जावें और अस्थियक्ष्मा, वृक्कयच्मा, प्रजननाङ्गीय यक्ष्मा आदि में प्रभावग्रस्त अंग को यमदण्डाणु रक्तधारा
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