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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५४६ विकृतिविज्ञान हम एक कोष्ठक देकर यह प्रकट करना चाहते हैं कि प्रतीकारिता, दण्डाणुओं की उग्रता और यक्ष्मा के विक्षतों में क्या सम्बन्ध है ताकि यह विषय और स्पष्ट हो जावे - - - दण्डाणुकी शारीरिक उग्रता प्रतिरोध यक्ष्मादण्डाणु का शरीर पर प्रभाव १-सम सम २-अल्प | अधिक ३-अत्यल्प । ४-अधिक अल्प साधारण यदिमका बनती है जिसमें ऊतिनाश, महाकोशा, जालक निर्माणादि यथावत् पाये जाते हैं। परमचयिक यक्ष्मा होती है उतिनाश और महाकोशा नहीं मिलते यह उण्डक और लसग्रन्थिकाओं में बहुधा देखने में आती है। हलका तन्तूत्कर्ष मात्र मिलता है, ऊतिनाश नहीं होता, यचिमका नहीं बनती। फुफ्फुसच्छद के शान्त विक्षत इसी प्रकार के बनते हैं। तिमृत्यु अधिक, यक्ष्मिकाएँ अनेक, कभी-कभी महा. कोशा मिलते हैं जालक निर्माण का प्रयत्न चलता है परन्तु सुरक्षात्मक श्लेषजनतन्तुओं का निर्माण नहीं होता। यह तीव्र फुफ्फुस यक्ष्मा में देखा जाता है। यहाँ संयोजी ऊति की कोई प्रतिक्रिया नहीं हो पाती। जालकनिर्माण, यक्ष्मिकानिर्माण, महाकोशानिर्माण सब बन्द रहता है। यचमाविष की तीक्ष्णता के कारण उतियाँ केवल गलना जानती हैं। यह भयङ्कर शोष रोग में देखा जाता है। ५-अत्यधिक अत्यल्प विकृतशारीर अब हम फुफ्फुस यचमा के विकृत शारीर पर विचार करते हैं। इस विचार में हम प्राथमिक और उत्तरजात उपसर्गों की विकृतियों को सर्वप्रथम और एक बार पुनः प्रत्यक्ष करेंगे प्राथमिक उपसर्ग-प्राथमिक उपसर्ग द्वारा निर्मित विक्षत सदैव किलाटीय रूप धारण करता है, वह फुफ्फुस के किसी भी क्षेत्र में बन सकता है पर प्रायः होता वह उसके धरातल पर और फुफ्फुसच्छद के नीचे ही है। यह विक्षत नियमतः अकेला ही होता है पर कभी कभी दो या तीन विक्षत भी मिल सकते हैं। किलाटीय क्षेत्र के चारों ओर एक श्यामाकसम या उपश्यामाकसम ग्रन्थिकाओं का समूह पाया जाता है इनमें कुछ तो वास्तव में यदिमकाएँ ही होती हैं जो संयोजी ऊति की पटियों (septa) में पाये जाते हैं। उनमें से कुछ गाण्विक विक्षत (acinus lesions ) होते हैं उसका कारण होता है यक्ष्मप्रक्रिया द्वारा श्वसनिकाओं का आक्रान्त करना जिसके कारण कुछ स्त्राव ( exudation ) निकलने लगता है और जो शीघ्र ही किलाटीय For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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