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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ५२८ विकृतिविज्ञान २-कास्थिनाशावस्था ( the stage of invasion of cartilage and joint cavity ) ३-सन्धिविघटनावस्था ( the stage of destruction of the liga. ments and capsule with disorganisation of the joint), उत्स्यन्दनावस्था में उपसर्ग केवल सन्धिकला तक ही सीमित रहता है तथा सन्धिकला मुलायम तथा कणनऊतियुक्त होती है। सन्धि में शूल तथा पेश्याक्षेप ( muscle spasm ) अधिक नहीं रहता परन्तु पेशियों की तान (tone ) में कभी आजाती है, वे कुछ श्लथ (flabby) हो जाती हैं और उनका शोष (wasting) होने लगता है। इसके कारण उनकी क्रियाशक्ति सीमित हो जाती है जिससे सन्धि की गति कम हो जाती है यद्यपि गति करने में कोई शूल नहीं होता और वे सभी दिशाओं में होती हैं पर कमी के साथ होती हैं। यह अवस्था वयस्कों में देखी जाती है जहाँ उपसर्ग रक्त द्वारा आता है और बहुत काल तक रहती है । कास्थिनाशावस्था तथा सन्धिगुहा में यक्ष्मप्रवेश की अवस्था वह है जब अस्थिशिर तोड़कर यच्मोपसृष्ट सामग्री सन्धिगुहा में फँस पड़ती है जिसमें कास्थि फूट जाती है और यचमकणन ऊति दोनों ओर से उसे नष्ट करने का बीडा उठाकर चल पड़ती है। इस अवस्था में थोड़ी सी गति करने से ही भयंकर शूल होता है इसके कारण अत्यधिक पेश्याक्षेपों द्वारा सन्धि अचल ( immobile ) बना दी जाती है। थोड़ी भी गति के कारण बिजली की चमक के समान शूल प्रारम्भ होता है। इस शूल को 'विद्युच्छूल' विद्युत् वत् शूल ( starting pain ) कह सकते हैं । इस अवस्था में पेशीक्षय खूब होता है, सन्धि के चारों ओर लगी पेशियों में जो पेशी समूह अधिक बलवान् होता है उस ओर की सन्धि झुक जाती है और एक विरूप स्थिति ( deformed position ) ले लेती है। परन्तु इसमें अंग छोटा नहीं पड़ता। सन्धिगुहा में कणन ऊति या किलाटीय यक्ष्मपूय भरा हुआर हता है । सन्धिविघटनावस्था में सन्धि में लगे स्नायु और उसका प्रावर ( capsule ) नष्ट हो जाता है सन्धिस्थल विरूप हो जाता है तथा छोटा पड़ जाता है। अधिक बलशाली पेशी समूह की और अस्थियाँ विचलित हो जाती हैं। सन्धिगुहा अभिलुप्त हो जाती है उसमें कणनऊति तथा किलाटीय ऊति भर जाती है। ___ यक्ष्मसन्धिपाक का रोपण चाहे उसकी कोई भी अवस्था आ गई हो हो सकता है और यह रोपण तान्तव ऊति के द्वारा ही होता है । यदि रोग होते ही उसकी रोकथाम कर ली गई तो सन्धि की गति बराबर जारी रह सकती है और उसका विरूप भी नहीं होता। पर यदि पर्याप्त काल बाद जब कि संधायीकास्थियाँ विनष्ट हो चुकी हो और सन्धिगुहा (अभिलुप्तप्राय हो सन्धि को उसके प्रकृत कार्य के अनुरूप बनाना अत्यधिक कठिन होता है। ऐसे अवसरों पर सन्धिस्थल पर डट कर तन्तूरकर्ष होता है जो तान्तव अस्थिसन्धान ( fibrous ankylosis) कर देता है जिसके कारण सन्धि की गतियाँ घट जाती हैं या समाप्त हो जाती हैं और वह अपनी प्रकृतक्रिया सम्पन्न For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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