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विकृतिविज्ञान
I
अधराङ्गघात ( paraplegia ) हो जाता है । परन्तु ज्यों ही संपीडन दूर होता है ये सभी घात ठीक हो जाते हैं । विक्षत के स्थान के अनुसार यच्मपूय त्वचा पर विभिन्न स्थानों पर प्रकट हुआ करता है । औरस भाग में तो यह फुफ्फुसच्छद में भी प्रवेश कर सकता है या पशुकीय पर्यस्थि के सहारे - सहारे चलकर उरस् के अग्रभाग में भी देखा जा सकता है । कटिप्रदेश में यह पूय कटिलम्बिनीपेशीकंचुक ( sheath of psoas_muscle ) में होता हुआ वंक्षणप्रदेश ( groin) में जा सकता है और भी नीचे जानुपृष्ठ ( popliteal space ) तक पहुँच सकता है । जैविक भाग में एक पश्चग्रसनी विद्रधि ( retropharyngeal abscess ) बन सकता है या ग्रीवा पार्श्व में एक नाडीव्रण देखा जा सकता है । विद्रधि फूटने पर नाडीव्रण भले प्रकार देखा जा सकता है । यमविधि की रोपित न होने की प्रवृत्ति होती है । दूसरे इसमें पूयजनक जीवाणुओं का उत्तरजात उपसर्ग भी हो जाता है । जब कशेरुकीय विक्षत रोपित हो जाता है तो प्रभावित कशेरुक स्वस्थ भागों से जुड़ जाते हैं तथा वहाँ गति स्थैर्य ( ankylosis ) हो जाती है ।
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aresों में भी यह रोग जब होता है तो वह कशेरुकाओं के अग्रभागों की ओर होता है । अस्थियों का अतिस्वल्प अपरदन होने से वे कृमिदष्ट (worm eaten ) सी लगती हैं। इसकी विरूपता इस कारण कोई खास नहीं होती क्योंकि विक्षत अधिक विस्तृत नहीं देखा जाता ।
अस्थि में यक्ष्मा होने पर तब तक उसका पता नहीं चलता जब तक कि पर्यस्थि भी प्रभावित न हो क्योंकि शूल और शोथ ये दोनों पर्यस्थि में अधिक होते हैं । गम्भीर अस्थियों में कभी-कभी यक्ष्म विधि बहुत काल तक बनी रहती है और जब पर्यस्थ तक उसका प्रभाव पहुँचता है तब ज्ञात होता है कि कोई विकार अस्थि में हुआ है । अस्थि के वित वैसे स्वयं रोपित होने को प्रवृत्ति रखते हैं पर जब वे बार-बार उपसृष्ट हो जाते हैं तो वहां विमेदाभ रोग या श्यामाकसम यक्ष्मा के लक्षण होकर तत्काल मृत्यु तक हो जा सकती है । विविध अस्थियों में इस रोग में अन्य स्थानिक विविध लक्षण भी देखे जा सकते हैं ।
( २ )
सन्धियों पर यक्ष्मदण्डाणु का प्रभाव [ सन्धियक्ष्मा ]
अस्थिसन्धियों ( bony joints ) पर यक्ष्मादण्डाणु का उसी प्रकार प्रभाव पड़ता है जिस प्रकार अन्य पूयजनक जीवाणुओं का पड़ता है । बालकों और वयस्कों में दो भिन्न रीति से सन्धियक्ष्मा होता है । अर्थात् बालकों में पहले किसी समीपस्थ अस्थि में यक्ष्मा होकर फिर वहाँ से सन्धि में पहुँचता है । वयस्कों में उपसर्ग जब रक्त धारा में होता है तो वहाँ से सन्धि की श्लेष्मलकला में आकर सीमित ( localised ) हो जाता है ।
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