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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir .., यक्ष्मा मानने लगे हैं। यही कारण है कि सभी जीर्ण रोगों में यह विनाश एक सा ही रहता है। बहुत बड़े परिमाण में उपसर्ग की मात्रा देने का परिणाम मृत्यु तो हो सकता है (सर्वाङ्गीण यक्ष्मा होने से ) क्योंकि उसके कारण शरीर की सम्पूर्ण प्रतीकारिता शक्ति समाप्त हो जाती है परन्तु ये विनाशक ऊतीय दृश्य नहीं देखने को मिलते।। कामेट ने चिकित्सात्मक दृष्टि से ( therapeutically ) इसी आधार पर यक्ष्मरोधक शक्ति उत्पन्न करने के प्रयोग किये हैं। उसने जीवित यक्ष्मादण्डाणु की उग्रता को कम करके उससे मसूरी ( vaccine ) तैयार की है। उसने जिस प्रकार का जीवाणु लिया है उसे बी. सी. जी. प्रकार ( B. C G. strain-bacille cal. mette-guerin strain ) या दं. का. ग्वे. ( दण्डाणु कामेट ग्वेरीन ) कहते हैं । इस दंकाग्वे की मसूरी से उसने गोवत्सों की यक्ष्मा को दूर किया है और उसी आधार पर आज विश्व के विभिन्न देशों में दंकाग्वे अन्तःक्षेपण (बी. सी. जी. इलेक्शन) चल पड़ा है। परन्तु दंकाग्वे पद्धति को अन्य विद्वान् अभी तक संशयात्मक दृष्टि से देख रहे हैं। इसका प्रयोग करने से पर्याप्त हानि भी हो सकती है क्योंकि इस पद्धति से शरीर में जीवित यक्ष्मादण्डाणुओं का प्रवेश किया जाता है। इघर बड़े पैमाने पर बी. सी. जी. टीके लगाये गये हैं जिनके परिणाम अपेक्षित हैं। तीव्र सर्वाङ्गीण यक्ष्मा ( Acute Generalised Tuberoulosis ) यह एक रक्तधारा द्वारा प्रसारित होने वाला रोग है और उसी समय प्रसारित होता है जब अत्युग्र प्रकार के यक्ष्मादण्डाणु बहुत बड़ी संख्या में रक्तधारा में स्वतन्त्रतया विचरण करने लग जावें तथा रोगी स्वयं अनुहृषावस्था ( susceptible condition ) में हो। जितनी मात्रा में यक्ष्मादण्डाणुओं की इस रोग को उत्पन्न करने के लिए आवश्यकता है उतनी मात्रा मनुष्यों में बाहर से कदापि नहीं आ पाती क्योंकि उनमें तो बाह्य वातावरण से एक सीमित मात्रा में ही दण्डाणु अन्दर पहुँचते हैं । इस कारण तीव्र सर्वाङ्गीण यक्ष्मा मनुष्यों में सदैव उत्तरजात ( secondary ) घटना है जिसकी प्राथमिक नाभि मानवशरीर में पहले से ही उपस्थित रहती हुई प्रायशः मिलती है। यह नाभि उदर या वक्षःस्थली की किसी लसग्रन्थि में रहा करती है। यह किलाटीय होती है। जब वह किसी समीपस्थ रक्तवाहिनी की प्राचीर का अपरदन करती है ( erodes ) तो रक्तधारा में जीवाणुओं का पर्याप्त प्रवेश हो जाता है और इस प्रकार वे सम्पूर्ण शरीर में बिखर जाते हैं। कभी-कभी मुख्या लसकुल्या ( thor acio duct ) यक्ष्मोपसर्ग से पीडित देखी जाती है जहाँ से असंख्य यक्ष्मादण्डाणु सिरारक्त में गिर कर रक्तधारा में पहुँचते रहते हैं। यह रोग बालकों तथा तरुणों का है जिनमें यक्ष्मा के विरोध के लिए यथेष्ट प्रती कारिता उपस्थित नहीं मिलती। यह रोग इसी कारण अधिक भायुवाले मनुष्यों में नहीं देखा जाता। यतः यह एक रोगाणुरक्तता ( septicaemia ) है अतः उग्रस्वरूप के ४४ वि० For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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