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यक्ष्मा
४६७ डोर्सटीय अण्ड संवर्धाश ( dorset egg medium ) पर संवर्धित किया जा सकता है।
ष्ठीव ( sputum ) में यचमाकवकवेत्राणु कई सप्ताह पर्यन्त सजीवावस्था में रह सकता है। यदि यह पूर्णतः सुखा दिया जावे तो १ घण्टे तक १०. श. के ताप को सह सकता है पर यदि आई वातावरण में तपाया जावे तो यह ७०° श. पर अत्यल्प काल तक ठहर कर ही अपनी जीवन लीला समाप्त कर देता है। दुग्ध के नीरोगन (pasteurization ) करने में इस तथ्य का खूब उपयोग किया जाता है। इसके लिए दुग्ध को ७० श. पर २० मिनट तक उबालना पड़ता है। सूर्यप्रकाश ( sunlight) इस रोग के लिए सर्वाधिक नाशकारक माना जाता है। यदि प्रत्यक्ष सूर्यरश्मियों के क्षेत्र ये सदेह झाँकी दे गये तो यमराज का निमन्त्रण मिल गया यही इन्हें मान लेना चाहिए।
यचमकवकवेत्राणु कई प्रकार के होते हैं इनमें एक प्रकार मानव ( human mycotacterium ), दूसरा गोमय ( mycobacterium stercoris) जो गाय के गोबर में मिलता है, तीसरा पति ( mycobacterium avium) जो कबूतर मुर्गी आदि पक्षियों में यक्ष्मा उत्पन्न करता है तथा गायों में भी कर सकता है पर मनुष्यों में यह प्रकार अत्यन्त विरल देखा जाता है, चौथा मात्स्य ( mycobacterium piscium ) और पाँचवाँ माण्डूक ( mycobacterium ranae ) तथा छठा सार्प ( mycobacterium tropidonatum ) होता है ये अपने-अपने वर्गों में यचमोत्पत्ति करते हैं। मनुष्य को इस रोग की प्राप्ति प्रायः मानव और गन्य प्रकारों से ही होती है। इस प्रकार हम देखते हैं कि यक्ष्मा का प्रभाव थलचर, जलचर, नभचर सभी वर्ग के प्राणियों पर पड़ता है इस कारण यदि इस रोग को रोगराट कहा जावे या यदि इसके जीवाणु को डॉ. घाणेकर के शब्दों में राजरोगाणु या राजजीवाणु कहा जावे तो वह सर्वथैव उपयुक्त है।
यक्ष्मा के प्रभवस्थल यमा का उपसर्ग कहाँ से लगता है (source of infection ) इसे बिना जाने आधुनिक युग में चिकित्सा क्षेत्र में आगे बढ़ा ही नहीं जा सकता। यमोपसर्ग प्रत्यक्षरूप से या अप्रत्यक्षतया सदैव किसी रोगग्रस्त प्राणी (मनुष्य या पशु) से ही प्राप्त होता है। इनमें मानवष्ठीव (sputum of human beings ) तथा गोदुग्ध मुख्य हैं। अपने देश में गोदुग्ध को उबालकर पीने की जो प्रथा है उसी के कारण यह देश अब तक जीवित रह सका है और गव्य यक्ष्मा जो पश्चिमी देशों का प्रमुख शिरःशूल है इधर व्याप्त नहीं हो सकी। आयुर्वेद कहता है कि संस्कारतो विरुद्धं तद्यद भोज्यं विषवद ब्रजेत्-संस्कार से विरुद्ध भोज्य पदार्थको विष के समान परित्यक्त कर देना चाहिए क्योंकि वह विष के ही समान है। इन वाक्यों का अर्थ एक वैज्ञानिक जितना समझ सकता है एक छदमचर स्वयंभू अर्थरत चिकित्सक नहीं। दुग्ध को उष्ण बनाना एक संस्कार है जिसे सम्पूर्ण भारतवर्ष कश्मीर के कन्याकुमारी तक
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