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ज्वर
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साथ निकल कर
भण्डार बन जाता है जो वर्षों बना रह सकता है । इसी के कारण पित्ताश्मरियाँ तैयार होती हैं । ये दण्डाणु वर्षों सजीवावस्था में पित्ताशय के पित्त के मल के साथ बाहर जाते रहते हैं तथा जीवन भर वातावरण में फैलाने का कार्य करते रहते हैं । इस प्रकार रोगी एक कर सकता है ।
आन्त्रिकज्वर को
जीर्णवाहक का कार्य जीवन भर
अस्थिमज्जा - जैसा कि अन्यत्र देखा जाता है उसी प्रकार अस्थिमज्जा में भी जालकान्तश्छदीय परमपुष्टि पाई जा सकती है। इस कारण एकन्यष्टिकोशाओं की संख्या पर्याप्त बढ़ जाती है। साथ ही इनकी वृद्धि रक्त के लालकर्णी के अधिक नाश का भी प्रमाण उपस्थित करती है । आन्त्रिकज्वरजन्य विषरक्तता के कारण मज्जाकायाणु की संख्या पर्याप्त घट जाती है जिसके फलस्वरूप बहुन्यष्टि कायाणुओं की भी कमी हो जाती है जिनके कारण आन्त्रिकज्वर से पीडित रोगी का रक्तचित्र श्वेतकणापकर्ष का मिलता है । सितकणोत्कर्ष ( leucocytosis ) जहाँ तीव्र ज्वरों के साथ सदैव मिलता है मोतीझरे
तिणापकर्ष ही मिलता है । सकलसितकणगणन २००० प्रतिघन मि० मी० से भी नीचे चला जा सकता है । ग्रीन का कथन है कि यदि मन्थरज्वर के साथ-साथ उदरपाकादि सितकणोत्कर्षकारी ज्वर हो तब भी सितकणोत्कर्ष जितनी कि आशा है उससे कहीं कम मिलता है ।
हृदय तथा अन्य पेशियाँ - हृदय तथा अन्य पेशियों में झेंकरीय (zenker's) काचरविहास ( Hyaline degeneration ) होता है इसके कारण हृदय मृदु और दुर्बल होकर विस्फारित हो जाता है । उसके तन्तुओं की रेखाएँ भी मिट जाती हैं । यही विहास हृदय के अतिरिक्त उदरदण्डिका तथा महाप्राचीरा इन पेशियों में भी मिल सकता है । परिणाम यह होता है कि पेशियाँ विदीर्ण होने लगती हैं और उनमें रक्तस्त्राव भी हो जाता है । रक्तस्राव के कारण उसमें द्वितीयक उपसर्ग हो सकता है । स्वरयन्त्र में भी व्रणन हो सकता है जिससे ( odems of the glottis ) ..." हो जा सकता है तथा वहाँ की कास्थियाँ भी गल सकती हैं ।
श्वसनिकाओं में व्रणशोथ होकर श्वसनीफुफ्फुसपाक होता हुआ देखा जाता है । मारकस्वरूप का रोग फुफ्फुस में शोथोत्पत्ति के साथ बन सकता है । फुफ्फुसखण्डीय - श्वसनक (lobar pneumonia ) आन्त्रिकज्वर के साथ बहुधा देखा जाता है । पर ये श्वसनकीय विक्षत मन्थरज्वर के दण्डाणुओं के कारण न होकर फुफ्फुस गोलाणुओं द्वारा हुआ करते हैं ।
मन्थर में मुख शुष्क और गन्दा होने के कारण उसमें मुखपाक, दन्तमांसपाक अथवा सपूय कर्णमूल ग्रन्थिपाक suppurative parotitis ) तक मिल सकता है । मुख की इन दूषक प्रवृत्तियों के कारण ही श्वसनकोत्पत्ति बतलाई जाती है ।
वृक्कों में मेघसम शोथ के अतिरिक्त अन्य विकृति नहीं देखी गई यद्यपि सजीव मन्थरज्वर दण्डाणु मूत्र द्वारा उत्सृष्ट होते हुए मिलते हैं ।
अस्थि—जंघास्थि ( tibia ) अथवा कशेरुकाओं में जीर्णस्वरूप का अस्थिमज्जापाक ( osteomyelitis ) मिल सकता है । मन्थर में एक दो मास से लेकर
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