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ज्वर
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हमने देखा कि विषमज्वर के कीटाणुओं के कारण रक्त में लालकों के टुकड़े, शोणवर्तुलि तथा रागक के कण प्रचुर परिमाण में आ जाते हैं। इन विजातीय द्रव्यों को नष्ट करने या ग्रहण करने का मुख्य कार्य जालकान्तश्छदीय संस्थान को करना पड़ता है अतः सर्वप्रथम उनके कोशाओं का परमचय हो जाता है। प्लीहा इन कोशाओं का भाण्डागार है तथा वहीं पर लालकों का विनाश पूर्णतः होता है अतः प्लीहाभिवृद्धि विषमज्वर का एक अत्यन्त महत्त्व का कार्य है। यदि रोग जीर्ण या कालिक हो जावे तो यकृत् को भी इस कार्य में सहायता देनी पड़ती है अतः यकृद्वृद्धि भी प्रायशः मिलती है। मज्जागत जालकान्तश्छदीय संस्थान के कोशाओं में भी अभिवृद्धि होती है जिसके कारण रुधिरोद्भावन ( erythropoiesis ) कम होता है अर्थात् रक्त के लालकण कम उत्पन्न हो पाते हैं जिसके परिणामस्वरूप रक्तक्षय (anaemia ) बढ़ने लगता है। रक्त में एककायाणुकोशा जालकान्तश्छदीय संस्थान के प्रतिनिधि होते हैं अतः उनकी अभिवृद्धि और संख्यावृद्धि पर्याप्त होती है जिसके कारण सापेक्ष गणन में वे २ से १५-२०% तक पाये जाते हैं। अतः ये रागक के कणों को खा डालते हैं अतः उनके उदर में रागक भी पाया जाता है। ___ शोण वर्तुलि के रक्त में बहुत अधिक मात्रा में स्वतन्त्र होने के कारण उससे पित्तरक्ति ( bilirubin ) की उत्पत्ति करने की दृष्टि से भी जालकान्तश्छदीय संस्थान की आवश्यकता पड़ती है । अतः श्लेषाभ पित्तरक्ति का यकृत् में पर्याप्त मात्रा में सञ्चय हो जाता है और उससे फिर स्फटाभ या पित्त में उपस्थित होने वाली पित्तरक्ति बनती है। इसके कारण पित्ताधिक्य हो जाता है। पित्ताधिक्य का परिणाम हृल्लास, तिक्कास्यता, पित्तजछर्दि, पैत्तिक प्रवाहिका तथा नेत्रों और त्वचा में कामला या पीलिया के होने में होता है।
मारक विषमज्वर के कीटाणु जिन लालकणों में घुस जाते हैं उन्हें भिदुर ( frssgile ) चिपटु ( sticky ) और अनम्य ( inflexible ) कर देते हैं। ये परिवर्तन ज्यों-ज्यों प्रविष्ट हुए कीटाणु का विकास होता है त्यों-त्यों बढ़ते जाते हैं। केशालों में से जाते समय उनके अन्तश्छद पर ये उपसृष्ट कण चिपकते जाते हैं और जब वे संख्या में अधिक हो जाते हैं तो उनके मार्गों का अवरोध कर देते हैं। केशालों के अन्तश्छद का परमचय भी होता रहता है। इनके कारण केशालों को तथा समीपस्थ ऊति के पास रक्त का पहुँचना कम हो जाता है जिससे वहाँ प्राणवायु की कमी होती चली जाती है और वहाँ के कार्य का उचित रूप से चलना रुक जाता है। जब यह स्थिति मस्तिष्क में होती है तो ज्वर का तापांश अत्यधिक बढ़ जाता है प्रलाप, विसंज्ञता तथा अपस्मार के समान आक्षेप आने लगते हैं। यदि आन्त्र की केशालों का मार्गावरोध होकर प्राणवायु की कमी हुई तो अतीसार या विसूचिका जैसे लक्षण मिलने लगते हैं । हृदय में ऐसे लक्षणों के कारण हृदयातिपात हो सकता है। अन्य भी किसी अंग में ये लक्षण बनने से उसी-उसी प्रकार के भीषण लक्षण पैदा होते हुए देखे जा सकते हैं।
शरीर में लाल कणों की कमी, शोणवर्तलि का विनाश इन दो स्थितियों के होने
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