________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
विकृतिविज्ञान
अन्तक सन्निपात (१) यस्मिल्लक्षणमेतदस्ति सकलैर्दोषैरुदीते ज्वरे
ऽजस्रं मूर्द्धविधूननं सकसनं सर्वाङ्गपीडाधिका । हिक्काश्वासकदाहमोहसहिता देहेऽतिसन्तप्ता
वैकल्यञ्च वृथा वचांसि मुनिभिः संकीर्तितः सोऽन्तकः ॥ (भा.प्र.) (२) अन्तर्दाहशिरःकम्पहिकारोदनविभ्रमाः। तमन्तकं विजानीयादसाध्यश्चाप्रतिक्रियः ॥ (मा.) (३) दाहमोहशिरःकम्पहिक्काकासाङ्गपीडनम् । सन्तापश्चात्मनोशेयश्चान्तके सान्निपातके ॥ (आ.) (४) दाहं करोति परितापमातनोति मोहं ददाति विदधाति शिरःप्रकम्पम् ।।
हिकां करोति कसनं च समातनोति जानीहि तं विबुधवर्जितमन्तकाख्यम् ॥ (नि. वा.) (५) सदाहमोहस्तापश्च शिरःकम्पः प्रलापनम् । ____ वान्तिहिक्का ज्वरश्चैव ह्यन्तके सन्निपातके ॥(चि.) (६) दाहः प्रकम्पो भृशमुष्णमङ्गं मूर्ध्नः प्रकम्पः कसनं च हिक्का।
श्वासप्रमोहौ सततं च यस्मिंस्तमन्तकाख्यं विबुधैर्विवय॑म् ।। (वै. वि.) अन्तक सन्निपात एक असाध्य व्याधि है। इसका प्रमुख लक्षण जिसे सभी शास्त्रकारों ने स्वीकार किया है वह है सिर का धुनना। रोगी अपने सिर को हजारों बार इधर से उधर करता है। शिरः कम्प या सिर का काँपना भी उसी को कहा जाता है। रोगी को तीनों दोषों की उल्बणता के कारण अति तीव्र ज्वर चढ़ता है । दूसरा महत्त्व पूर्ण लक्षण है दाह वा अन्तर्दाह । रोगी दाह से जलता रहता है पर इस दाह में प्यास महत्त्वपूर्ण नहीं रहती क्योंकि उसके बारे में किसी भी निदानकार ने उल्लेख नहीं किया है । इसका कारण है मोह की अधिकता; रोगी मोहित सा पड़ा रहने से पानी नहीं मांग पाता । तापांश १०४ से नीचे नहीं रहता। हिचकी और खाँसी इस रोग का बहुत बड़ा उपद्रव है। हिचकी किसी दवा से शान्त नहीं होती और मृत्युकाल तक रहती हैं । श्वास, रोदन, भ्रम, वमन, प्रलाप, विकलता और प्रकम्प के लक्षण भी किसी-किसी में देखने में आते हैं।
रुग्दाह सन्निपात (१) दाहोऽधिको भवति यत्र तृषा च तीव्रा श्वासप्रलापविरुचिभ्रममोहपीडाः ।
मन्याहनुव्यथनकण्ठरुजाश्रमश्च रुग्दाहसंज्ञ उदितस्त्रिभवो ज्वरोऽयम् ॥ ( भा. प्र.) (२) शोफप्रलापमोहाग्निमान्धं शान्तितृषाभ्रमः ।
रुग्दाहे श्वासशूलौ च कण्ठमन्यारुजा तथा ॥ ( आ.) (३) मोहस्तापःप्रलापश्च व्यथा कण्ठे भ्रमः कुमः । वेदनाति तृषा जाड्यं श्वासस्त्वेतैश्च लक्षणैः।
कष्टात्कष्टतरं शेयं रुग्दाहसन्निपातिकः ।। (आ.) (४) प्रलापपरितापनप्रबलमोहमान्धश्रमाः परिभ्रमणवेदनाव्यथितकण्ठमन्याहनुः ।
निरन्तरतृषाकरः श्वसनशूलहिक्काकुलः सकष्टतरसाधनो भवति हन्ति रुग्दाहकः ॥ (नि.ना.) (५) प्रलापतापौ मोहश्च कण्ठे वै वेदनाभ्रमः । वेदनातितृषाकासो जाड्यकम्पप्रलापनम् ।
स्वेदो ललाटे कण्ठे च रुग्दाहे सान्निपातिके ॥
For Private and Personal Use Only