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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ४०६ विकृतिविज्ञान ध्यानाकर्षण कराया है। वसवराज ने कफ की श्वेतवर्णता, कण्ठशोथ, भ्रान्ति, चिन्ता, भीति, सारण, घर्घरश्वासशब्दता के अतिरिक्त दाह और ताप का भी उल्लेख कर दिया है। विविध आचार्यों और शास्त्रज्ञों ने जहां तक सम्भव हुआ है अपने से बड़े के मत से सामञ्जस्य मिलाते हुए ही कफज्वर का वर्णन किया है पर जहाँ स्वतन्त्र मत व्यक्त करना पड़ा है यहाँ वे उससे पीछे भी नहीं हटे हैं। द्वन्द्वजज्वर एकदोषज ज्वरों के विचार को समाप्त कर अब हम द्वन्द्वज ज्वरों की ओर अग्रसर हो रहे हैं। द्वन्द्वज वा सान्निपातिक ज्वरों के सम्बन्ध में चरक भगवान् का निम्न अभिभाषण बड़ा सारपूर्ण होने से हम उसे नीचे अविकल उद्धृत किए दे रहे हैं: विषमाशनादनशनादन्नस्यापरिबर्तादृतुव्यापत्तः असात्म्यगन्धोपघ्राणात् विषोपहत्य चोदकस्योपयोगाद् गरेभ्यो गिरीणाञ्चोपश्लेषात् स्नेहस्वेदवमनविरेचनास्थापनांनुवासनशिरोविरेचनानाम् अयथावत् प्रयोगात् मिथ्यासंसर्जनाद्वा स्त्रीणाञ्च विषमप्रजननात् प्रजातानाञ्च मिथ्योपयोगात् यथोक्तानाञ्च हेतूनां मिश्रीभावात् यथानिदानं द्वन्द्वानामन्यतमः सर्वे वा त्रयो दोषा युगपत् प्रकोपमापद्यन्ते, ते प्रकुपितास्तयैवानुपूर्वा ज्वरमभिनिवर्तयन्ति । तत्र यथोक्तानां ज्वरलिङ्गानां मिश्रीभावविशेषदर्शनात् द्वान्द्विकमन्यतमं ज्वरं सान्निपातिकं वा विद्यात् । ( चरकसंहिता निदानस्थान प्रथम अध्याय )। अर्थात् १. विषमाशन, २. अनशन, ३. आहारपरिवर्तन, ४. काल का अयोग, अतियोग, मिथ्यायोग, ५. असात्म्यगन्ध का सूंघना, ६. विषाक्त जल, ७. कृत्रिमविष, ८. गिरिके निकट वास, ९. पञ्चकर्मों का अनुचित प्रयोग, १०. मिथ्यासंसर्जन, ११. विषम प्रजनन, १२. प्रसूता का मिथ्या उपयोग, १३. पूर्वोक्त दोष कोपों के मिश्रण इनमें से किसी के भी द्वारा कोई सा एक द्वन्द्व या तीनों ही दोष एक साथ प्रकुपित हो जाते हैं। प्रकुपित हुए दोष उसी-उसी क्रम से अपने-अपने प्रकार के ज्वर की उत्पत्ति करते हैं । इस ज्वर में पूर्व वातिक पैत्तिक श्लैष्मिकादि जिन-जिन ज्वरों के लक्षण मिलें उन्हीं के अनुसार उसका नामकरण वातपैत्तिक, वातश्लैष्मिक अथवा पित्तश्लैष्मिक हुआ करता है। यदि तीनों दोषों के लक्षण मिले हुए रहते हैं तो वह ज्वर त्रिदोषज या सान्निपातिक कहलाता है। द्वन्द्वज या सन्निपात ज्वरों में प्रत्येक दोष के लिए व्यक्त लक्षणों का समावेश पाया जाता है । द्वन्द्वज ज्वरों में पूर्वोक्त दोषज ज्वरों के ही जब लक्षणों का मिश्रीभाव होता है तो उसको प्रकृतिसमसमवायारब्ध द्वन्द्वजज्वर माना जाता है। पर जब द्विदोषज ज्वर में दोनों दोषों के लक्षणों का विषमारम्भ होता है तो ऐसे ज्वर में दोनों दोषों के अतिरिक्त भी कुछ लक्षण देखने में आते हैं इस ज्वर को विकृतिविषमसमवायारब्ध द्वन्द्वजज्वर माना जाता है। इसी प्रकार जिस त्रिदोषज ज्वर में एक भी विशेष लक्षण न होकर प्रत्येक दोषज ज्वर में कहे हुए लिंगों का ही समावेश हो तो उसे प्रकृतिसमसमवायारब्ध सन्निपातिकज्वर कहा जाता है। पर जब कुछ और विशेष लक्षण भी मिलें तो उसे विकृतिविषमसमवायारब्ध सन्निपातिकज्वर कहते हैं । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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