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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर सुर्सी गालों से हट जाती है और वे श्वेत हो जाते हैं। आँखों की कला की सुर्सी हटने से हारीत का नेत्रे च पाडुच्छवी याधवलाक्षित्वम् में से एक अवश्य ही हो जाता है रक्त की कमी से नाखून सफेद पड़ जाते हैं। कफजविकार में रक्त की कमी के कारण कोई भी भाग श्लेष्मल या चर्मल कला में श्वेत हो सकता है। मल की श्वेतता का मुख्य कारण महास्रोत में पित्तोत्सर्ग का नियमित हो जाना होता है। इसके कारण अन्नपाचन में श्लेष्माविरोधी पित्त की अल्पता के कारण मल का वर्ण हरा पीला या जो स्वाभाविक होता है वह न होकर सफेद रंग का मल आने लगता है। मूत्र में भी सफेदी आती है । मूत्र में ओज ( एल्बुमीन) निकल सकता है या भास्वरीय (फास्फेट्स) आसकते हैं। ओज के गुणों को यदि हम श्लेष्मा के गुणों के साथ मिलान करें तो देखेंगे कि ओज श्लेष्मा का ही एक पुष्ट या सार रूप हैओजः सोमात्मकं स्निग्धं शुक्लं शीतं स्थिरं सरम् । विविक्तं मृदु मृत्स्नं च प्राणायतनमुत्तमम्।।(सुश्रुत) कश्यप ने इसकी वृद्धि के लिए उन्हीं पदार्थों को स्वीकार किया है जो श्लेष्मावर्धक हैमधुरस्निग्धशीतानि लघूनि च हितानि च। ओजसो वर्धनान्याहुस्तस्माद्वालांस्तथाऽऽशयेत्॥ (कश्यप) ____ अतः ओजः स्वयं श्लेष्मा न होते हुए एक दूसरे से सम्बद्ध अवश्य है। दोनों सोमात्मक, स्निग्ध, शीतल, शुक्ल और स्थिर स्वरूप के पदार्थ हैं। ओज भी बलवर्द्धक है और श्लेष्मा भी बल को बढ़ाता है अतः श्लेष्मा की वृद्धि के साथ-साथ यदि ओज भी कुपित होकर शरीरपोषण क्रिया न कर मूत्रमार्ग से बह निकले तो कोई सन्देह नहीं होना चाहिए। अतः कफज्वर में बालकों या बड़ों में कभी-कभी शुक्लमेह या शुक्लमूत्रता या एल्बुमिनूरिया मिल सकती है। ___ कफज्वरी की आँखें सफेद हो जाती हैं, यह एक ऐसा तथ्य है जिसे उग्रादित्य ने धवलाक्षिता, डल्हण और सुश्रुत ने अक्ष्णोश्च शुक्लता और चरक ने अत्यर्थ नयनश्वैत्यम करके स्वीकार किया है। केवल हारीत ने इसे न मान कर नेत्रे च पाण्डुच्छवी ऐसा लिखा है । पैत्तिक उग्रता पीताक्षिता जब मिल सकती है तो श्लेष्मविकार में धवलाक्षिता भी पाई जासकती है। साधारणतथा कृष्णपटल को छोड़कर नेत्रों का पटल शुक्ल वर्ण का ही होता है। पर यदि गौर से देखा जाय तो यह शुक्लता कभी घटती और कभी बढ़ा करती है। कभी उसमें अरुणता और कभी पीतता आजाती है। कभी वे हरी भी हो जाती हैं। जो नेत्रविशारद उनके वर्ण को शुक्लपटल में ध्यान से पढ़ता है वह शुक्लता में वृद्धि या घटोतरी को स्पष्टतः बतला सकता है। कफज्वर के आरम्भ होते ही यह लक्षण मिल सकता है और कालान्तर में २-४-५-७ दिन व्यतीत होने पर भी देखा जा सकता है। वातज अर्श में नेत्र का शुक्ल पटल कृष्णवर्ण का, पित्तजमूर्छा में पीतवर्ण का, मजागत या अस्थिगत कुष्ठ या पित्तजमूर्छा ही में तथा सन्निपातज्वर में लालवर्ण का, कृमिज हृद्रोग तथा कृमिज छर्दि में श्यावता लिए हुए कामला में हरे वर्ण का मिल सकता है । इन सब पहचानों के लिए थोड़े अनुभव की आवश्यकता है । कफज पाण्डु For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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