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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir २८० विकृतिविज्ञान हैं । मुंह खोलकर पानी डालने को तो वह ग्रहण कर लेता है पर शीताभिप्रायता या शीतेच्छा को साधारण परिचारक नहीं जान पाता। वैद्य भी इस लक्षण की ओर अधिक ध्यान न देकर अन्य गम्भीर लक्षणों की ओर विशेष ध्यान देता है। चत्वारिशत्पित्तरोगनामानि के अन्दर शीतेच्छा को भी एक पित्तरोग माना गया है। प्यास के साथ साथ वमन का होना भी पित्तज्वर में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। चरक ने पैत्तिक वमन, पित्तच्छर्दनम की उपस्थिति स्वीकार की है। वाग्भट ने पित्तवमनम्, अञ्जननिदानकार ने तिक्तता वमि तथा अन्यों ने वमिः मात्र माना है । उग्रादित्याचार्य बड़े बड़े गम्भीर लक्षण दिये हैं पर वह पैत्तिक वमन काल क्षण नहीं लिख सका । पित्तकोपप्रभवा छर्दि का वर्णन करते हुए सुश्रत लिखता है योऽम्लं भृशोष्णं कटुतिक्तवक्त्रः पीतं सरक्तं हरितं वमेद्वा । सदाहचोषज्वरवक्त्रशोषं सा पित्तकोपप्रभवा हि छर्दिः ॥ तथा चरक ने मूर्छापिपासामुखशोषमूर्धताल्वक्षिसन्तापतमोभ्रमाऽऽतः । पीतं भृशोष्णं हरितं सतिक्तं धूम्रं च पित्तेन वमेत्सदाहम् ।। पित्तच्छर्दिजन्य जितने लक्षण दिये गये हैं वे सभी पित्तज्वर में प्रायशः उपस्थित होने से पित्तज्वर में पित्तज छर्दि ही होती है ऐसा अनुमान और प्रमाण से मान लिया जाना चाहिए। गंगाधर ने पित्तच्छर्दनमिति कफ विना केवल पित्तवान्तिः ऐसा लिखा है । अर्थात् पित्तज्वर में जो वान्ति होती है उसमें शुद्ध हरा पीला पाचक पित्त ही निकलता है अन्य दोषों का अंश नहीं आता।। ___ सदाह ज्वर में हरे पीले पित्तों का वमी के रूप में निकल जाना पित्तज्वर की सदैव पुष्टि किया करता है। यह वमन यकृत् द्वारा बने प्रकुपित अस्वाभाविक पित्त की अधिक मात्रा में निवृत्ति के कारण होती है। पित्त ग्रहणी से उलटा चलकर आमाशय में आता है वहाँ पैत्तिक उग्रतावश मुख की ओर वायु द्वारा ढकेल दिया जाता है और वमन हो जाती है। पैत्तिक वमन के साथ साथ रक्तष्टीवनमम्लकः को तथा उग्रादित्य रुचिरान्वित पित्तमिश्रनिष्ठीवन का भी उल्लेख करते हैं । पित्त के प्रकोप से रक्त का उदीर्ण होना स्वाभाविक है, अतः केवल पित्त वमन ही नहीं रुचिर विमिश्रत पैत्तिक वमन भी हो सकती है । रुधिर का जाना स्थिति की आत्ययिकता की ओर ही निर्देश करता है। यह लक्षण प्रत्येक पित्तज्वरी में मिलना सम्भव नहीं। आचार्यों ने जो कटुकास्यता, वक्त्रकटुता, कटुवक्त्रता, आननकटुत्व अथवा मुखतिक्तता आदि शब्दों का व्यवहार किया है वह क्या उपरोक्त पित्तर्दि के कारण है अथवा कटुकास्यतादि के कारण पित्तचर्दि उत्पन्न होती है ? यह एक सरल प्रश्न नहीं है । पर इसका उत्तर पर्याप्त सरल है । पित्तज ज्वर में पाचक पित्त का पर्याप्त मात्रा में बाहर आना और उसका ऊर्ध्वाधः गमन करना एक सर्वसाधारण क्रिया है। कोई आवश्यक नहीं कि यह पित्त बहुत बड़ी मात्रा में वमन का रूप लेकर आवे । उसके For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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