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विकृतिविज्ञान दो सौ वर्ष लग जावें । प्राक्तनकर्म के कारण सन्तत सतत में और चातुर्थक तृतीयक में बदल जाता है। इसको समझने की अन्य भी विधियाँ हैं जैसे मानलो कि आपके ग्राम में सर्वत्र सन्तत ज्वर चल रहा है। पर वहाँ एक व्यक्ति उसी घर का उसी खान पान का आदी एक ही प्रकृति वाला सन्तत के स्थान पर सतत ज्वर से पीडित हो जाता है। जब अन्य सभी बातें समान हैं तो उसे भी सन्ततज्वरापन्न होना चाहिए था। यह जो दूसरी बात हुई इस पर प्राक्तन कर्म का अधिकार है। इसे इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि अति दुर्बल कोमल श्लेष्म प्रकृति भूयिष्ठ बालक के कफ प्रधान तृतीयक होता है जब अतिबलिष्ठ पित्तगुण भूयिष्ठ उसी के पिता को सन्तत ज्वर होता है और भी आश्चर्य यह कि पिता उसको न सह कर मर जाता है और कोमल बालक बच जाता है । यह सब प्राक्तन कर्म की क्रिया में सोचने के लिए बाध्य करनेवाली घटनाएँ हैं। दो बालकों को एक ही माँ दुग्ध पिलाती है दोषदृष्टि से दोनों एक समान जुड़वाँ हैं पर एक प्राक्तन कर्म वश एक प्रकार के ज्वर से पीडित होता है और दूसरा उससे गम्भीर ज्वर में मर जाता है या अधिक कष्ट भोगता है।
यद्यपि सर्वत्र हेतु के अनुकूल ही कर्म होता है पर जहाँ कारणान्तराभाव हो तब भी कार्य हो तो वहाँ प्राक्तनकर्म ही लेना पड़ता है।
विषमज्वरों के सम्बन्ध में जल्पकल्पतरुकार ने कुछ सूत्र संग्रह करके लिखे हैं उन्हें ही यहाँ अविकल दे रहे हैं :(१) परो हेतुः स्वभावो वा विषये कैश्चिदीरितः। आगन्तुश्चानुबन्धो हि प्रायशो विषमज्वरे ।। (२) वाताचिकत्वात् प्रवदन्ति तज्ज्ञास्तृतीयकञ्चापि चतुर्थकञ्च ।
औपत्यके मद्यसमुत्थिते च हेतुं ज्वरे पित्तकृतं वदन्ति ।। प्रलेपकं वातबलासकञ्च कफाधिकत्वेन वदन्ति तज्ज्ञाः ।
मूच्र्छानुबन्धा विषमज्वरा ये प्रायेण ते द्वन्द्वसमुत्थितास्तु । (३) त्वक्स्थौ श्लेष्मानिलौ शीतमादी जनयतो ज्वरे। तयोःप्रशान्तयोःपित्तमन्ते दाहं करोति च ॥
करोत्यादौ तथा पित्तं त्वक्स्थं दाहमतीव च । तस्मिन् प्रशान्तेत्वितरौ कुरुतः शीतमन्ततः ।। द्वावेतौ दाहशीतादि ज्वरौ संसर्गजौ स्मृतौ । दाहपूर्वस्तयोः कष्टः कृच्छ्रसाध्यतमश्च सः॥ प्रलिपन्निवगात्राणि धर्मेण गौरवेण वा। मन्दज्वरविलेपी च सशीतः स्यात्प्रलेपकः॥ नित्यं मन्दज्वरो रूक्षः शूनकरतेन सीदति । स्तब्धाङ्गश्लेष्मभूयिष्ठो न ते वातबलासकी ॥ समौ वातकफौ यस्य हीनपित्तस्य देहिनः । प्रायो रात्रौ ज्वरस्तस्य दिवाहीनकफस्य च ।। विदग्धेऽन्नरसे देहे श्लेष्मपित्ते व्यवस्थिते । तेनार्द्धशीतलं देहे चार्द्धचोष्णं प्रजायते ।। काये दुष्टं यदा पित्तं श्लेष्मा चान्ते व्यवस्थितः। उष्णत्वं तेन गात्रस्य शीतत्वं हस्तपादयोः॥
काये श्लेष्मा यदा दुष्टः पित्तमन्ते व्यवस्थितम् । शीतत्वं तेन गात्राणामुष्णत्वं हस्तपादयोः।। (४) वातेनोद्धूयमानस्तु यथा पूर्येत सागरः। वातेनोदारितास्तद्वदोषा कुर्वन्ति वै ज्वरान् ।
यथा वेगागमे वेलां छादयित्वा महोदधेः। वेगहानौ तदेवाम्भस्तत्रैवान्तर्णिधीयते ।। दोषवेगोदये तद्दुदीर्येत ज्वरस्य वा। वेगहानौ प्रशाम्येत यथाम्भः सागरे तथा । उपरोक्त श्लोकों में कई काम की बातें आ गई हैं जो इस प्रकार हैं:
विषमज्वर परहेतुवाला और स्वभावात् विषमत्व रखनेवाला ज्वर है यह प्रायः करके आगन्तु और अनुबन्धी होती है।
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