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विकृतिविज्ञान हारीत और मलपित्त की महत्ता अंगीकार करते हैं तथा नागभत्ततन्त्र स्पष्टतया पैत्तिक चातुर्थक का उद्घोष करता है।
विपर्यय विचार चातुर्थक ज्वर का ही एक विपर्यय भेद चातुर्थक विपर्यय के नाम से प्रसिद्ध है। यह भी एक प्रकार का विषमज्वर है इसमें एक दिन रोगी को आराम मिलता है दूसरे और तीसरे दिन ज्वर हो जाता है और चौथे दिन पुनः आराम मिलता है । स मध्ये ज्वरयति अह्नि आदावन्ते च मुञ्चति । इसके सम्बन्ध में वाग्भट लिखता है
अस्थिमज्जोभयगते चतुर्थकविपर्ययः । त्रिधा, द्वथहं ज्वरयति दिनमेकं तु मुञ्चति ॥ . अब हम यदि मधुकोश टीकाकार की दृष्टि से चलें तो हमें इस चातुर्थक विपर्यय की सब गुत्थियों का हल मिल जावेगा । इसके अनुसार सर्वप्रथम जेजट का मत यह मिलता है कि यह ज्वर अस्थि और मजा दोनों में जाकर रहने वाला है। आदि के पहले दिन ज्वर नहीं आता पर बीच के दो दिन ज्वर लगातार बना रहता है। पराशर का भी यही मत है
अस्थिमज्जोभयगते चतुर्थक विपर्ययः । त्र्यहाद् द्वयह ज्वरयति आदावन्ते च मुञ्चति ॥ यहाँ तीन दिन में एक दिन शान्ति और दो दिन ज्वर रहता है । और तीन दिन बीतने पर चौथे दिन शान्ति रहती है।
हरिचन्द्र का मत निम्न हैद्वे अहनी निरन्तरं ज्वरयित्वा उपरभ्यैकमहः । पुनर्बर यतीत्वेवं चतुर्थक विपर्यय इति ।। इसके अनुसार दो दिन निरन्तर ज्वर चलता रहकर तीसरे दिन उतर जाता है और फिर दो दिन के लिए चढ़ बैठता है।
जिस प्रकार चातुर्थक विपर्यय हो सकता है उसी प्रकार तृतीयक विपर्यय अन्येद्यष्क विपर्यय आदि भी देखा जा सकता है । इसके लिए मधुकोश की भाषा ही समझिए
मध्ये एक दिनं ज्वरयति आद्यन्तयोर्मुञ्चतीति तृतीयक विपर्ययः। एक कालं विमुच्य सर्वमहोरात्रं व्याप्नोतीत्यन्येदुष्कविपर्ययः,
( कालद्वये मुञ्चति सर्वमहोरात्रं ज्वरयतीति सततक विपर्ययः।) यहाँ इन विपर्ययों में दोपविकृति नाना प्रकार के हेतुओं में बदल जाती है। अर्थात्कफस्थानेषु वा तिष्ठन् दोषो द्वित्रि चतुर्यु च । विपर्ययाख्यान कुरुते विधमान् कृच्छ्रसाधनान् । दोष जब दो तीन या चारों कफस्थानों में व्याप्त हो जाते हैं तो एक स्थान से चलकर दोष जब आमाशय में आता है तबतक तीसरे स्थान का दोष हृदय में पहुँच जाता है और चौथे स्थान का कण्ठ में चला आता है इस प्रकार एक क्रम बन जाता है और विपर्ययाख्य विषमज्वरों का तांता लग जाता है इसे मूलभाषा में समझिए
आमाशय हृदयस्थदोषो यथोदाहृत एवान्येशुष्कविपर्ययः, आमाशयहृदयकण्ठस्थितेन तृतीयक विपर्ययः;, तत्रैकस्मिन् दिने हृदयस्थो दोष आमाशयमागत्य ज्वरयति, एवं दिनद्वयं भूत्वा पश्चादेकदिनं न भवतीति तृतीयकविपर्ययः; आमाशय हृदयकण्ठशिरःस्थेन दोषेण चतुर्थक विपर्यय
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