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ज्वर
१. चातुर्थक ज्वर क्या है? २. ज्वर कुछ काल शान्त होकर पुनः चढ़ता है ऐसा क्यों है ? । ३. दोषों के विचार से तृतीयक-चतुर्थक के विभेद क्या हैं ? ४. चतुर्थक-विपर्यय ज्वर कौन सा है ? ५. पंचविध विषमज्वर त्रिदोषात्मक हैं क्या ? ६. विविध कालों में ज्वर प्राप्त होने के लिए कौन परिस्थितियाँ प्रभावक हैं ?
चातुर्थक ज्वर का विचार चातुर्थक ज्वर की उत्पत्ति तभी होती है जब दोष मेदोवह स्रोतसों को प्राप्त हो जाते हैं। मेदोवह स्रोतों का अवरोध अन्येशुष्क ज्वर के प्रकरण में भी आ चुका है पर वहाँ जितने अधिक बल के साथ दोषों का प्रकोप है वह यहाँ अत्यन्त घट जाने से वही दोष यहाँ केवल चातुर्थक ज्वर की ही उत्पत्ति करने में समर्थ होते हैं। चातुर्थक ज्वर में एक बार ज्वर बढ़ता है फिर दोष दो दिन विश्राम लेकर पुनः तीसरे दिन ज्वरोत्पन्न करते हैं । सवेरे ८ बजे इतवार को घर आगे के पश्चात् बुधवार को सवेरे ८ बजे ठीक ७२ घण्टे पश्चात् चातुर्थक ज्वरोपलब्धि हुआ करती है।
श्रुत - दोगतस्तुतीयेऽह्नि वस्थिमज्जगतः पुनः। कुर्याच्चातुर्थकं घोरमन्तकं रोगसङ्करम् ॥ कह कर अस्थि और मज्जागत ज्वर को चातुर्थक माना है और इसे यम सदृश घोर अथवा मारक कर कहा है। गंगाधर ने इसकी घोरता पर आपत्ति प्रकट करते हुए लिखा है--
उक्तं हि मुश्रुतेन 'अस्थिमज्जगतः पुनः। कुर्याचातुर्थक घोरमन्तकं रोगसङ्करम्' इति । मेदःस्रोतोगतस्तु न चान्तक रोगसङ्करं चतुर्थकं जनयेदित्यतो मेदोगतो नातिप्रकुपितदोषस्तु यं चतुर्थकं जनयति स नातिकष्ट प्रति बोध्यम् । और उसने जो चातुर्थक की परिभाषा दी है वह सरल और सुन्दर हैयो ज्वरो दिन यं विश्रम्य न भूत्वा प्रत्येति पुनरागच्छति स चतुर्थकः ।
____ ज्वर के पुनरावर्तन का आधार ज्वर कभी चढ़ता है और कभी उतर जाता है इसका क्या अभिप्राय है ? इसे समझाने के लिए आचार्य ने एक उदाहरण बहुत सुन्दर दिया है। वे कहते हैं कि जैसे पृथ्वी में बीज बोने पर वह तुरत ही नहीं उगता बल्कि काल पाकर जब उसके उगने का समय होता है तभी उगता है। उसी प्रकार दोष भी धातुओं में जाकर सो जाते हैं
और काल पाकर ही प्रकुपित होते अर्थात् ज्वरोत्पत्ति करते हैं। मक्का और बाजरा जिन दिनों उत्पन्न होता है उन्हीं के साथ साथ सेंधा नामक फल अपने आप उग आता है। कुछ सेंधे सड़ जाते हैं और उनके बीज उसी भूमि में सोये या पड़े रह जाते हैं। उन पर हवा का कोई प्रभाव नहीं पड़ता वर्षा हो जाने पर भी उनका कुछ नहीं बिगड़ता और गर्मी और ठण्डक के सब काल को पार करके अगले वर्ष ठीक समय पर वे बीज सेंधे की बेलों में परिवर्तित हो जाते हैं और समय पर उन्हें विना बोये ही हम पुनः
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