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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ज्वर तातपसहत्वासहत्वमरोचकाविपाको दौर्बल्यमङ्गमर्दः सदनमल्पप्राणता दीर्घसूत्रतालस्यमुचितस्य कर्मण हानिः प्रतीपता स्वकार्येषु गुरूणां वाक्येष्वभ्यसूया बालेभ्यः प्रद्वेषः स्वधर्मेस्वचिन्ता माल्यानुलेपनभोजनक्लेशनमधुरेभ्यश्च भक्ष्येभ्यः प्रद्वेषः उष्णाम्ललवणकटुप्रियता चेति ज्वरस्य पूर्वरूपाणि भवन्ति प्राकसन्तापात् , अपि चैनं सन्तापातमनुबध्नन्ति ।। ज्वर की संख्या सम्प्राप्ति . ज्वर के कितने प्रकार होते हैं इसके सम्बन्ध में विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों में विभिन्न मत पाये जाते हैं। आयुर्वेद में भी सभी आचार्य एक मत नहीं है। उन्होंने ज्वरों के कितने ही दृष्टिकोणों से विभेद किये हैं। हम पहले चरक संहिता में व्यक्तज्वर के भेदों का उल्लेख करना यहाँ सङ्गत मानते हुए चलते हैं। चरक ने सन्तापलक्षण के आधार पर ज्वर को एक प्रकार का सर्वप्रथम माना है। एकरूपज्वर सन्ताप-यह लक्षण सिवा ज्वर के अन्यत्र कहीं नहीं मिला करता। यह शरीरोत्ताप का मापक चिह्न है। इसे आधुनिक काल में थर्मामीटर द्वारा नापा जाता है। किसी अन्य रोग में सन्ताप नामक चिह्न नहीं प्राप्त होता। दाह नामक रोग में सन्तप्तता का अनुभवमात्र होता है। थर्मामीटर के द्वारा वह व्यक्त नहीं होता। पर ज्वर में स्वभावोष्मा के अतिरिक्त देहोष्मा भी मिलती है। सन्तापो देहेन्द्रियमनस्तापः । इस लक्षण के अनुसार देह में ताप, इन्द्रियों में वैकल्य और मन में वैचित्य, अरति और ग्लानि का मिलना आवश्यक है। ज्वर में जो सन्ताप होता है वह निश्चय ही देहेन्द्रिय मनस्ताप हुआ करता है। दाह में वह ताप दूसरी श्रेणी की वस्तु है। पहले हमने सुश्रुत का जो स्वेटावरोधः सन्तापः सर्वाङ्गग्रहणं तथा । युगपद्यत्र रोगे च स ज्वरो व्यपदिश्यते ॥ नामक परिभाषा द्वारा ज्वर को व्यक्त किया है वह भी चरक के एक एवेति ज्वरस्यैकमेव स्वरूपं सन्तापलक्षणत्वम् के आगे फीका पड़ जाता है। परन्तु स्वेदावरोध कुष्ठ का पूर्व रूप है और सर्वाङ्गग्रहण वात रोगों के पहले पाया जाता है अतः केवल सन्ताप (rise of temperature ) तापांश का बढ़ना मात्र ही ज्वर को व्यक्त करने का एकमेव साधन है । अतः ज्वर को एक ही प्रकार में रखने के लिए उसे 'सन्ताप' नामक संज्ञा से अभिव्यक्त कर सकते हैं । अतः कोऽयं व्याधिरिति ? के प्रश्न का उत्तर__ अयं व्याधिवरः देहेन्द्रियमनस्तापित्वात् यथा दाहो देहतापी यथा च दाहो देहं तापयति तथायं देहेन्द्रियमनांसि तापयति तस्मादयं ज्वर इति । ज्वर है ऐसा कह देने पर जब प्रश्न हो कि कौन ज्वर है ? तब-- ज्वरोऽयं वातजो विषमारम्भविसर्गादिलक्षणत्वात् , यथा पित्तजः यथा च पित्तज्वरः कटुकास्य - - १. ज्वरस्त्वेक एव सन्तापलक्षणः । For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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