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ज्वर
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आमाशय नाभि और स्तनों के बीच के भाग में रहने वाला अंग विशेष है । कच्चा (आम) अन्न रस जहाँ सञ्चित रहता है और बनता है वह स्थान आमाशय कहलाता है। इसमें स्टमक ग्रहणी चुदान्त्र और स्थूलान्त्र का ऊपरी भाग तक आ जाता है। एक शब्द में हम सम्पूर्ण महास्रोत को इसमें ला सकते हैं। स्टमक के अनुवाद को आमाशय कहा जा सकता है पर यहाँ आमाशय उतने संकुचित भाव में प्रयुक्त नहीं किया गया । नाभिस्तनान्तरं जन्तोरामाशय इति स्मृतः के अनुसार ही इसे इस स्थल पर ग्रहण करने योग्य है। कुछ लोग एक मात्र स्टमक को ही ज्वरोत्पत्ति में कारण मानकर चलते हैं। हिन्दी में 'पेट' शब्द जिस अर्थ में आता है उसी में आमाशय लेने से स्पष्टार्थ प्रगट हो जाता है। ज्वर जिस समय होता है उस समय भूख नहीं लगती खाना नहीं पचता टट्टी नहीं उतरती। ये तीनों क्रियाएँ पेट की खराबी की द्योतक हैं इनमें कुछ ज्वर के कारण स्वरूप हैं और कुछ उसके परिणामरूप
आममन्नरसं केचित्केचित्तु मलसञ्चयम् । कहने वाले जहाँ भी मल का अर्थात् दोष का संचय हो उसी स्थान को आमाशय मान लेते हैं तथा इस प्रकार ज्वर की उत्पत्ति शरीर के प्रत्येक मार्ग में सिद्ध करते हैं।
कोष्ठाग्नि से जाठराग्नि अभिप्रेत है। आमाशय को पेट मानने वालों के लिए जाठराग्नि तथा किसी भी मल संचय स्थल को आमाशय मानने वालों के लिए उसे धात्वग्नि लिया जा सकता है । ज्वर की सम्प्राप्ति के विचार करते समय केवल जाठराग्नि से भी कार्य चल जाता है क्योंकि वह सब धात्वग्नियों का अधिप है और उसी के द्वारा उनमें गर्मी पहुँचती है उसी की वृद्धि से वे बढ़ती हैं और उसी की कमी से वे क्षय को प्राप्त होती हैं:अन्नस्य पक्ता सर्वेषां पक्तृणामधिपो मतः । तन्मूलास्ते हि तवृद्धिक्षयवृद्धिक्षयात्मिकाः॥
अतः जाठराग्नि की महत्ता कम नहीं की जा सकती। जाठराग्नि अन्न को पकाने वाली है और आम अन्नरस को भी पकाकर लघु रस धातु का निर्माण करने वाली है। अतः आमाशय और जाठराग्नि का ज्वरोत्पत्ति में आयुर्वेद परम महत्त्व का हाथ मानकर चलता है।
अब यदि हम मिथ्याहारविहाराभ्यां वाले सूत्र को समझने का यत्न करें तो ज्ञात होगा कि आमाशयाश्रित तीनों दोषों में से कोई एक या दो या सब मिथ्या आहार विहार के वशीभूत होकर वहाँ की अन्नपाचिनी अग्नि को बाहर निकाल कर और रसानुगामी होकर ज्वरप्रदान कर देते हैं। दोषों का रसानुगमन और अग्नि का बाह्यागमन ये दो क्रियाएँ परस्पराश्रित हैं। रस का परिपाक और उस पर अग्नि का कार्य होने से शारीरिक स्वास्थ्य ठीक रहता है उसी रसधातु के साथ जब मिथ्याहार-विहार के परिणामों से क्षुब्ध आमाशय में स्थित दोष मिलकर चलने लगते हैं तो रसस्थ अग्नि स्वतन्त्र हो जाती है और वह फिर बाहर निकल कर शरीर को उत्तप्त कर देती है।
आमाशयाग्नि की क्रिया सन्तापोत्पत्ति में प्रमुख भाग लेती है इसे आयुर्वेद अपना
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