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रक्तपरिवहन की विकृतियाँ
२८१ अभाव और विषैले पदार्थों की वृद्धि है । रक्त का पीडन भी राशि की अधिकता एवं असमर्थता के कारण बराबर बढ़ता जाता है। इन सबका परिणाम मूत्रविसर्जन में कमी तथा और भी उत्तरोत्तर होने वाले परिणाम जैसे तरल का ऊतियों में पारयातन ( transudation of fluid ) लालकणों का बहिर्गमन, रक्तस्राव, अपोषण, घनास्रोत्कर्ष तथा मृत्यु में होता है।
द्रव के पारयातन का प्रमुख हेतु अन्तःकेशालीय पीडनोत्कर्ष होता है। इसका परिणाम ऊतियों के शोफ ( oedema of the tissues ) में होता है जिससे ऊति-स्थल द्रव से भर कर तन जाते हैं । और शरीर के लसस्यून (serous sacs) जैसे फुफ्फुसच्छद ( pleura), परिहृच्छद ( pericardium ) अथवा उदरच्छद ( peritonium ) में द्रव सञ्चय होने लगता है।
रक्त के लालकणों का बहिर्गमन (diapedesis of the red blood corpuscles ) मिरागत रक्त के लौटने में अधिक बाधा पड़ने पर होता है। स्वयं लालकण यद्यपि अमीवा सदृश गति करने में समर्थ नहीं होते अतः केशाल प्राचीरों की जारक की कमी के कारण ज्यों ज्यों प्रवेश्यता बढ़ती जाती है त्यो त्यों वे ऊतियों में प्रवेश करने में समर्थ होते चले जाते हैं। तथा इन्हीं दोनों कारणों से वाहिनियाँ अत्यधिक अभिस्तीर्ण हो जाती हैं। उनकी प्रवेश्यता बढ़ जाती है। आघातप्राप्त अन्तश्छदीय कोशाओं के बीच बीच में वास्तविक स्थान छूटा हुआ दिखने लगता है। वहीं से लालकण अपना मार्ग बनाते हैं।
निश्चेष्टातिरक्तता में वाहिनियों के फूट जाने से रक्तस्राव होता है। यह अत्यधिक अधिरक्तता होने या साथ में उपसर्ग के कारण देखा जाता है। जो वाहिनियाँ निराधार या अल्पाधार होती हैं उनमें रक्तस्राव अधिक देखा जाता है। यकृद्दाल्युस्कर्ष ( cirrhosis of the liver ) में अन्नवहस्रोतस् तथा आमाशय की सिराओं में रक्तस्राव होना या द्विपत्रकीय सन्निरोधोत्कर्ष (mitral stenosis ) में फुफ्फुस से रक्त निकलना इसी के उदाहरण हैं ।
वाहिनियों के चारों ओर योजी ऊति में उत्तरोत्तर वृद्धि होने से होनेवाला तन्तूत्कर्ष जो निष्क्रियातिरक्तता का परिणाम है अङ्गविशेष में स्थित विशिष्ट अति ( specialised tissue ) के मन्दगति से विनष्ट होने का सूचक है। अजारकता के कारण यह तन्तूत्कर्ष होता है। __ घनास्रोत्कर्ष का कारण कोशाओं में अजारकता के कारण अन्तश्छद का खुरदरापन है जिसमें रक्तबिम्बाणु आकर चिपक जाते हैं। यह घनास्रोत्कर्ष सिराओं या हृदय के अलिन्द पुच्छों (विशेषकर दक्षिण भाग) में होता है।
थोड़े शब्दों में हम कह सकते हैं कि निश्चेष्टातिरक्तता अङ्ग की जीवनी एवं कार्यकर शक्ति को नष्ट कर देती है धातुएँ धीरे धीरे अपुष्ट होने लगती हैं यद्यपि देखने में द्रव के पारयातन तथा रक्ताधिक्य से उनका आकार प्रवृद्ध जान पड़ता है तथा भार में भी वृद्धि मिलती है।
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