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[ १७ ]
वस्था में पूरी तरह रक्त से भर नहीं पाता। इसके कारण रक्त की बाहर जाने वाली मात्रा भी घट जाती है जिसके कारण सिराओं में निपीड़ाधिक्य हो जाता है और हृदय का भराव कुछ काल के लिए बढ़ जाता है पर आगे जाकर हृदय का भरना समाप्त होने के कारण हृदय की गति रुक ही जाती है। ___ जीर्ण हृद्भेद अनेक कारणों से होने के कारण उसका वर्णन कई विचार उपस्थित करता है। जिन रोगों से रक्तप्रवाह में बाधा पड़ती है या हृत्पेशी की कार्य शक्ति घटती है वे सभी इससे सम्बद्ध होते हैं । अस्वाभाविक रूप से प्रवृद्ध रक्त प्रवाह ( abnormally increased blood flow ) भी जीर्ण हृद्भेद ( chronic heart failure ) का कारण हो सकता है। रक्तप्रवाह की प्रवृद्धि रक्त की हृदय से जाने वाली मात्रा ( output) को बढ़ा देती है। विविध रोग इस विकृति में सहायक बनते हैं। रक्त का अधिक मात्रा में प्रवाह बढ़ने से हृदय को अधिक कार्य करना पड़ता है कार्यभाराधिक्य ही हृदय के फेल्योर के लक्षण उपस्थित करता है। आमवात और निपीडाधिक्य के द्वारा भी जीर्ण हृभेद होता है। किसी भी कारण से यह हृद्भेद उत्पन्न हो परिवर्तन एक से ही रहते हैं। सबसे पहले प्रभावित हुआ हृत्प्रकोष्ठ ठीक से खाली नहीं हो पाता। पर यह देर तक नहीं चलता और उसका शीघ्र सन्तुलन हो जाता है थोड़ी मात्रा में जो रक्त बच जाता है वह सिराजन्य प्रवाह के साथ मिल जाता है जिससे हृदय कुछ तन जाता है जिसके कारण हृदय और शक्ति के साथ संकोच करता है इसका परिणाम यह होता है कि हृदय पुनः अपनी पूर्व स्थिति को प्राप्त कर लेता है। इस अवस्था में रक्त प्रवाह प्रकृत तो हो जायगा और हृद्भेद के कोई विशिष्ट लक्षण प्रकट नहीं होंगे पर हृद्विस्फार ( dilatation of the heart) तो मिलेगा ही। साथ ही हृदय की संचित शक्ति घट जाने से थोड़े ही परिश्रम पर श्वास फूलने लगेगी। हृद्विस्फार के कारण हृत्पेशी की परमपुष्टि ( hypertrophy ) हो जावेगी। परमपुष्टि के कारण हृदय का बल फिर बढ़ जाता है और वह लक्षणदृष्टथा स्वतन्त्र हो जाता है। जिस कारण हृद्विस्फार हुआ वह यदि आगे न बढ़ा तो हृदय की परमपुष्टि वर्षों बनी रह सकती है पर यदि हृदय के तनाव का कारण बना रहा तो एक प्रकार की तीव्रता (strain) निरन्तर बनी रहती है जैसा कि रक्त निपीड़ाधिक्य में देखा जाता है।
जो लोग यह समझते हैं कि अधिकपुष्ट या प्रवृद्ध हृदय में रक्त की मात्रा उसका पोषण करने के लिए कम पहुँचती है उनके इस भ्रम को बिंग और उनके सहयोगियों के प्रयोगों ने नष्ट कर दिया है। हृदय जितना ही बड़ा होता है रक्त की उसकी पूर्ति भी उसी अनुपात में हुआ करती है । पर परमपुष्ट हुए हृत्पेशी के तन्तु इतने मोटे हो जाते हैं कि उनके केन्द्रिय भाग तक रक्त की पर्याप्त मात्रा नहीं पहुँचने से उनमें जारकाभाव (anoxia) मिल सकता है । परमपुष्ट हृदय अधिक काल तक सन्तुलन (compensation) कायम नहीं रख पाता है जिसके कारण निलय रक्त को पूरी मात्रा में आगे चलकर निकालने में असमर्थ हो जाते हैं। जब वाम निलय में यह स्थिति होती है तो फुफ्फुस सिराओं में निपीड़ बढ़ जाता है । इसके कारण दक्षिण निलय पर भी उसका प्रभाव पड़ता है और पल्मोनरी क्षेत्र में निपीड़ सर्वत्र बढ़ जाता है । इसके बढ़ने से वाम भाग में रक्त भरने की शक्ति बढ़ जाती है
और वामनिलय और शक्ति से संकोच करता है पर यह संकोच अस्थायी ही होता है। इस निपीड़ वृद्धि के कारण फुफ्फुस में निश्चेष्ट अधिरक्तता ( passive congestion of the Ings)
और श्वसन क्रिया में अल्पश्रम पर ही वृद्धि प्रगट हो जाती है। यह भी अस्थायी स्वरूप की होती है। थोड़े समय बाद दक्षिण निलय की क्रिया शक्ति समाप्त होने से अधिरक्तीय हृद्भेद के लक्षण उपस्थित हो जाते हैं जिसमें सिरारक्त का अवरोध और शोफोत्पत्ति देखी जाती है।
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