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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ऊतिमृत्यु या अतिनाश अति ( nervous tissue ) में मिलता है जहाँ आतञ्चन न होकर सीधा द्रावण होता है। इसका द्वितीयक स्वरूप किसी विधि में पूयोत्पत्ति के रूप में अथवा यक्ष्मा में किलाटीयन ( caseation ) के रूप में दृग्गोचर होता है। ( ४ ) किलाटीयनाश (Caseous Necrosis ) यह राजयक्ष्मा तथा फिरङ्ग ( T. B. & syphilis) नामक दो रोगों में मुख्यतः देखा जाता है। इस ऊतिमृत्यु में धातु पूर्णतः नष्ट होकर श्वेत किलाट (पनीरवत् मृदु पदार्थ) में परिणत हो जाती है । इस किलाट में प्रोभूजिन तथा स्नेह का बाहुल्य रहता है। ___फिरङ्ग रोग में तरलन ( liquefaction ) न होकर वहाँ धीरे से तान्तव ऊति का निर्माण हो जाता है परन्तु यक्ष्मा में तरलन होकर तरल बाहर की ओर निकल जाने का प्रयत्न करता है। यदि किसी कारण वैसा न होसका तो उसके भी चारों ओर तान्तव ऊति ( fibrous tissue) का घेरा बन जाता है। धीरे धीरे तरलांश सूखता चला जाता है तथा वहाँ चूना भरता जाता है। इसको हम चूर्णियन ( calcification ) कहते हैं। किलाटीय मृत्यु ३ कारणों से हुआ करती:: १. यक्ष्मा वा फिरङ्ग के जीवाणुओं से निकला हुआ विष ऊतिस्थ आत्मपचनीयकिण्वों (autolytic ferments) के कार्य को रोक देता है इसके कारण धातु विलुप्त न होकर किलाट के रूप में रह जाती है। ___२. कारणभूत जीवाणुओं के द्वारा ऊति में ऐसा विष भी भेजा जाता है जिसकी उपस्थिति में सितकोशा उन रोगाणुओं पर आक्रमण नहीं करते तथा वहाँ पर स्थित किलाट को उठाना पसन्द नहीं करते। ३. उस धातु को रक्त की यथावश्यक मात्रा पहुँचना बन्द हो जाता है क्योंकि उसके चारों ओर तान्तव उति का एक घेरा खिंच जाता है तथा रक्तवाहिनी धमनी का मुख छोटा और टेढ़ा हो जाता है। (५) स्नैहिकनाश (Fat Necrosis) __उदर में स्नैहिक मृत्यु का प्रमुख कारण सर्वकिण्वी ( pancreas ) में स्थित विमेदेद ( lipase ) का स्नेह वा स्निग्ध ऊति के समीप पहुँचना है। स्नैहिक मृत्यु उरस पर अभिघात लगने से कठिन, गोल, कोष्ठीय (cystic) रूप में देखी जाती है। इसे अभिघातज स्नैहिक मृत्यु कहते हैं । ___ जहाँ स्नैहिक मृत्यु हुई रहती है वहाँ ३ से २ इञ्च व्यास के श्वेत, दृढ़ क्षेत्र होते हैं। इन्हें गुर्विक अम्ल ( osmic acid ) के द्वारा अभिरक्षित किया जा सकता है। कभी कभी इन क्षेत्रों में स्नैहिकाम्लों के स्फट (crystals of fatty acids ) भी मिलते हैं जिनको अणुवीक्षणयन्त्र की सहायता से देखा जा सकता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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