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पकी जामुन के रंग का, यकृत् के टुकड़े के समान, घी, तेल, चीं, मज्जा, वेशवार, दूध, दही, मांस धोये जल के समान, काला, नीला, अरुण, अञ्जनपिण्ड के समान, चिकनाईयुक्त, नाना वर्ण का, मयूरपिच्छ के समान चन्द्रिकायुक्त, सघन, मुर्दे की गन्धवाला, मस्तिष्क के पदार्थ जैसा, सुगन्धित, सड़ा हुआ, बहुत सा मल जो त्यागता है-तृष्णादि लक्षण हैं, जिसकी गुदा की वलियां पक गई हैं, प्रलाप करता है ऐसे अतिसार रोगी की चिकित्सा वर्ण्य है।
२९–पाण्डुदन्तनखो यस्तु पाण्डुनेत्रश्च यो भवेत् ।
पाण्डुसंघातदर्शी च पाण्डुरोगी विनश्यति ॥ (सु.) जिसके नख, दन्त, नेत्र पाण्डुवर्ण के हों तथा जो सम्पूर्ण वस्तुओं को पाण्डुवर्ण का ही देखता है वह पाण्डुरोगी मर जाता है। ३०-हनुस्तम्भार्दिताक्षेपपक्षाघातापतानकाः।कालेन महतावाता यत्नासिध्यन्ति वा न वा॥
हनुस्तम्भ, अर्दित, आक्षेप, पक्षाघात, अपतानक दीर्घकालीन चिकित्सा से कभी ठीक हो जाते हैं कभी नहीं भी होते। ३१-तृष्णादितं परिक्लिष्टं क्षीणं शूलैरभिदतम् । शकृद्वमन्तं मतिमानुदावर्तिनमुत्सृजेत् ॥
भयंकर प्यास, बेचैनी, तीव्रशूल, बहुत क्षीण व्यक्ति मुख से मल का वमन करने लगे ऐसे उदावर्ती को छोड़ दे। ३२-शूनाक्षं कुटिलोपस्थमुपक्लिनतनुत्वचम् । बलशोणितमांसाग्निपरिक्षीणंचवर्जयेत् ॥(च)
जिसकी आँखे सूज गई हैं, मूत्रेन्द्रिय शोथ से टेढ़ी पड़ गई हो त्वचा गीली और पतली हो, जिसका बल-रक्त-मांस और अग्नि क्षीण हो चुके हों उसे छोड़ दे।।
३३-असंश्लिष्टकपालं च ललाटे चूर्णितं च यत्।
भग्नं स्तनान्तरे पृष्ठे शंखे मूर्ध्नि च वर्जयेत् ॥ कपाल की सन्धियाँ जिसकी खुल गई हो, ललाट चूर्णित हो, स्तनों के बीच का क्षेत्र भग्न हो, पीठ, शंख या सिर की हड्डी टूटी हो इनमें से प्रत्येक भाग का रोगी वर्जनीय है।
३४-शश्वरस्रवन्तीमास्रावं तृष्णादाहज्वरान्विताम् ।
क्षीणरक्तां दुर्बलां च तामसाध्यां विनिर्दिशेत् ॥ जिस स्त्री को निरन्तर रक्तस्राव हो रहा है जो तृष्णा, दाह और ज्वर से पीडित, क्षीण रक्त और दुर्बल है उसे असाध्य समझना चाहिए।
जिस प्रकार शारीरिक दोष रोगों के उत्पादक है उसी प्रकार मानसिक दोष भी विकारों के कारक हैं । यद्यपि इस विषय पर आयुर्वेद ने पर्याप्त प्रकाश डाला है फिर भी पाश्चात्य मनोविज्ञान ने इस क्षेत्र में एकदम नयी क्रान्ति उपस्थित कर दी है। इसका परिणाम यह हुआ है कि उन्माद की चिकित्सा में आज आकाश-पाताल का अन्तर प्रकट होता है। आधुनिक विद्वानों में सन् १३०० में मौण्डविले ने मानसिक शान्ति के सम्बन्ध में अपने विचार व्यक्त किये थे। पैरासैल्सस ने सबसे प्रथम यह मत व्यक्त किया कि एक मस्तिष्क दूसरे मस्तिष्क को प्रभावित करता है और यह प्रभाव एक प्रकार के चुम्बकीय तरल के कारण होता है। मैक्सवैल और उसके शिष्य कर्शर ने इस कथन को पुष्ट करने का यत्न किया और कहा कि मानसिक रोग का कारण इसो तरल का अभाव होता है तथा इस तरल को चुम्बकत्व से पुनः पूरा किया जा सकता है। हैलमोण्ट ने अपना मत प्रकट करते हुए बतलाया कि यह चुम्बकीय तरल एक मनुष्य से निकलकर दूसरे मनुष्य की इच्छा-शक्ति को प्रभावित कर सकता है। इसी चुम्बकत्व की मानवेतर प्राणियों में सिद्धि मैस्मर (१७७०) ने की तथा मनुष्य के हाथ की चुम्बकीय
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