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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव १७५ उ-जीर्ण प्रगुणनात्मक स्तनपाक ( chronic proliferative mastitis ) ऊ-जीर्ण कोष्ठीय स्तनपाक (chronic cystic mastitis) ए-जीर्ण अन्तरालित ऊतीय स्तनपाक (chronic interstitial mastitis) ऐ-उत्पादी स्तनपाक ( productive mastitis) कितने ही इस व्याधि के नाम हो इसका व्रणशोथ के साथ कोई सम्बन्ध नहीं है न यह कोई पाक ही है । इसका सम्बन्ध बीजकोपीय न्यासों की गड़बड़ी से होता है और बीजि (ईस्ट्रीन) के चयापचय ( oestrin metabolism ) के साथ सम्बन्ध है। कुछ इसका सम्बन्ध पोषणिका के स्तन्यपोषि (prolactin) न्यासर्ग के साथ भी लगाते हैं। इसे 'स्तनपाक' नाम से सम्बोधित करना किसी प्रकार भी न्याय्य न होने पर भी वैसा चल रहा है और हम भी उसी धारा में प्रवाहित होते हुए इसका वर्णन कर रहे हैं। इस रोग की प्रमुख घटना का नाम है प्रगुणन (proliferation )। जो अधिच्छद तथा तान्तव संधार दोनों पर प्रभाव डाल कर स्तन की आकारवृद्धि कर देता है, यह वृद्धि एकीय, नाभ्य, बह्वीय (बहुविध ) तथा प्रसर किसी भी प्रकार की हो सकती है। स्पर्श करने पर एक विषमतटीय ( ill-defined ) कठिन लोष्ट ( hard lump ) के समान अथवा सम्पूर्ण स्तन का गोलिकीय स्थौल्य ( shotty thickening ) जैसा प्रगट होता है। यह लोष्ट या स्थूलता प्रारम्भिक अवस्था में बड़ी स्पर्शाक्षम होती है और यह स्पर्शाक्षमता कभी कभी विशेष कर ऋतुकाल में बढ़ जाती है। प्रारम्भ में केवल एक ही स्तन पर बाद में दोनों स्तनों में यह व्याधि देखी जाती है । लोष्ट त्वचा के साथ सम्बन्ध नहीं होते तथा नीचे की गम्भीर ऊतियों के ऊपर वे चलनशील होते हैं। वे उतने कठिन भी नहीं होते जितना कि स्तन कर्कट होता है। उनका उच्छेद करते समय उनके विविध स्वरूप देखने को मिलते हैं उनमें कोष्ट होते हैं जो प्रायः बहुशाखीय होते हैं उनका आकार मटर के एक दाने से लेकर बड़ी गोलिकाओं तक का होता है। बाहर से वे नीले लगते हैं उनमें पर्याप्त ततियुक्त तरल भरा रहने से दबाना भी कठिन पड़ता है। यह तरल स्वच्छ और आपीत होता है नीला नहीं होता। स्तनपाक का क्षेत्र प्रसर होता है इसी कारण उसका प्रावरीकरण ( encapsulation ) नहीं होता। इन कोष्ठों के चारों ओर तान्तव ऊति के पट्ट होते हैं जो स्नेह ऊति में होकर प्रत्येक दिशा में जाते हैं। स्नेह अति भी बढ़ जाती है। इन तान्तवीय क्षेत्रों में परमचयिक गाण्विक अति ( hyperplastic acinar tinssue ) तथा प्रणालिकीय ऊतियों के द्वीप पाये जाते हैं जो धूसरवर्णीय सिध्मों के रूप में देखे जाते हैं कभी कभी बहुत से ह्रस्व तन्तु-ग्रन्थ्यर्बुद (firbro-adenoma) भी मिल जाते हैं। अण्वीक्षण पर, अधिच्छदीय रचनाओं का परमचय तथा अपोषक्षय दोनों को उसी प्रकार देखा जा सकता है जैसा कि गलगण्डयुक्त अवटुका में। कुछ क्षेत्रों में बहुत से गर्ताणु (acini ) बढ़ जाते हैं। कुछ अन्य क्षेत्रों में गर्वाणुओं का अपोषक्षय For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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