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विकृतिविज्ञान
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१. पूयकारक माला गोलाणु ।
२. अध्यान्त्रज्वरदण्डाणु ( paratyphoid bacillus )।
३. सामान्य नानारूप ( B. proteus ) ।
४. नीलपूयकशांगाणु ( psendsmonas aertginosa ) । ५. उष्णवातगोलाणु ( gonococci )।
६. यचमादण्डाणु (B. Tuberculosis )।
बस्तिपाककारी जीवाणुओं के बस्तिप्रवेश के निम्न मार्ग हो सकते हैं
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१. वृक्कों से गवीनी द्वारा
२. मूत्रमार्ग से ऊपर को ।
३.
बस्ति में बार-बार उपकरण ( instruments ) डालने से ।
४. अथवा श्रोणिगुहा में व्रणशोथ जैसे उण्डुकपुच्छपाक द्वारा या स्त्रियों में गर्भाशयनालपाक (salpingitis ) के कारण ।
अंगघात के कारण जब बस्ति से मूत्र के विसर्जन की क्रिया समाप्त हो जाती है। तो भी बस्तिपाक होता है तथा उसे निकालने के लिए प्रयुक्त बस्तियन्त्र के द्वारा आघात होने से भी यह रोग हो सकता है। अब आगे हम इस रोग के तीव्र और जीर्ण दोनों प्रकारों का वर्णन करेंगे ।
तीव्रबस्तिपाक -मूत्र के मेघाभ होने के साथ-साथ सशूल मुहुर्मुहु मूत्रत्यागेच्छा इस रोग में विशेष देखी जाती है । शूल का कारण बस्ति के त्रिकोण ( trigone ) में अधिरक्तता और व्रणशोथ होता है । कभी-कभी बस्ति के आधार पर स्पर्शासहिष्णुता तथा बार-बार मूत्रत्याग देखा जाता है उसे प्रक्षुब्धबस्ति ( irritable bladder ) कहते हैं परन्तु वह तीव्र बस्तिपाक नहीं होता क्योंकि वहाँ मूत्र में पूय उपस्थित नहीं रहता । इसमें त्रिकोण पर कुछ अधिरक्तता मात्र मिलती है । यह रोग स्त्रियों में प्रायः देखा जाता है ।
तीव्र बस्तिपाक में जो अधिक गम्भीर रोगी होते हैं उनमें बस्ति की श्लेष्मलकला असितनीलारुण ( dark purplish ) या लगभग कोथमय ( gangrenous ) हो जाती है । ऐसी अवस्था में बस्ति में अत्यधिक प्रयोत्पत्ति होने के पूर्व ही मृत्यु हो जाती है ।
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पर यदि अवस्था कुछ कम गम्भीर दिख पड़ी तो निम्न लक्षण देखे जाते हैं : १. बस्ति की श्लेष्मलकला की चमक मन्द पड़ जाती है, वह लाल हो जाती है, वह शोथ के कारण फूल जाती है, उसमें स्थान-स्थान पर व्रण बन जाते हैं जिनमें से तन्त्वित्-पूयीय स्त्राव ( fibrino purulent exudate ) के टुकड़े ( shreds) बस्ति प्राचीर से लटकते रहते हैं ।
२. उपश्लेष्मलकला से कई स्थानों पर रक्तस्राव होने लगता है ।
३. मूत्र में पूय, तन्वि तथा रक्त मिलता है । मूत्र की प्रतिक्रिया आन्त्रदण्डाणु,
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