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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विकृतिविज्ञान और संवर्ध द्वारा इस दण्डाणु का भी पता लगाया जा सकता है । अधिक गम्भीर होने पर मूत्र के साथ रक्त भी देखा जाता है । १०. बस्तिदर्शन से प्रारम्भ में एक गवीनी से और जीर्ण होने पर दोनों गवीनियों से पूय निकलता हुआ देखा जा सकता है। यह प्रकट करता है कि पहले उपसर्ग एक वृक्क में होता है फिर दोनों वृक्कों में हो जाता है । (२) वृक्कमुखपाक-- १. यह रोग पुरुषों की अपेक्षा स्त्रियों को होता है। सगर्भावस्था में प्रथम प्रसवाओं में ५-६ वें महीने में यह प्रायशः देखने को मिलता है। बाला, तरुणी, प्रौढ़ा कोई भी इससे प्रभावित हो सकती है । २. यह रोग केवल वृक्कमुख (pelvis of the kidney ) तक ही सीमित हो यह पूर्णतः सत्य नहीं है क्योंकि वृक्कमुख का किसी भी कारण से शोथ होने पर उसका प्रभाव वृक्क पर पड़कर ही रहता है। ३. इस रोग का प्रमुख हेतु भी आन्त्र दण्डाणु है। यह उपसर्ग उसे रक्त द्वारा प्राप्त होता है । रक्त में बहुन्यष्टिसितकोशोत्कर्ष देखने को मिलता है। ४. इस रोग का प्रभाव सर्वप्रथम दाहिनी ओर होता है क्योंकि दाहिनी ओर की गवीनी श्रोणिचक्र के मुख पर से गई है और उस पर गर्भ का भार भी पड़ता है जिसका प्रत्यक्ष परिणाम उसके विस्फारण में होता है। ५. रोग प्रारम्भ होने पर वृतमुख अत्यधिक रक्तान्वित हो जाता है और उसमें पूय भर जाता है। वृक्क भी मृदु और प्रवृद्ध हो जाता है। रोग सुखसाध्य रहा तो थोड़े समय पश्चात् वह शान्त हो जाता है और कोई उपद्रव नहीं उठते पर यदि वह कष्टसाध्य हुआ तो पूयवृक्कोत्कर्ष या वृक्तमुखवृक्कपाक में से कोई भी उपद्रव उठ सकता है । अन्तिम के कारण परिवृक्कविद्रधि भी उत्पन्न हो सकती है। ६. कभी-कभी प्रसवोपरान्त भी यह रोग मिल सकता है और जाड़ा चढ़ कर उच्चतापांशयुक्त ज्वर देख कर प्रसूतिज्वर (puerperal fever ) का भ्रम हो सकता है। शिशुवृक्कमुखपाक ( Infantile pyelitis)-यह बालकों की अपेक्षा बालिकाओं का रोग है, इसका कारक आन्त्रदण्डाणु ही है। यह उपसर्ग भी रक्तजनित होता है । यह कभी-कभी बहुत गम्भीरस्वरूप भी धारण कर लेता है और इसे देख कर जूटिकीय वृक्कपाक का सन्देह उत्पन्न हो जाता है। दोनों ओर का वृक्कमुखवृक्कपाक शिशुओं में बहुत गम्भीर बन जाता है। शनैः-शनैः वृक्क ऊति नष्ट होने लगती है जिससे रक्त में मिह बढ़ने लगता है मूत्र पतला होने लगता है और उसमें विति प्राप्त होने लगती है। मूत्र में पूय कभी आता है और कभी बन्द हो जाता है । वृक्कों का आकार छोटा पड़ जाता है उनमें व्रणवस्तु और तन्तूत्कर्ष बहुत होता है तथा वृक्कक्रिया रुक जाने से मृत्यु तक हो सकती है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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