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विकृतिविज्ञान
nephritis) कहते हैं और दूसरे को शल्यवृक्क ( surgical kiney ) या नाभ्य सपूय वृक्कपाक ( focal suppurative nephritis ) कहते हैं ।
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सपूय वृक्कपाककारी जीवाणुओं का वृक्क तक प्रवेश ३ मार्गों द्वारा सम्भव है। १. रक्तधारा द्वारा जब कि शरीर में कहीं भी पूयिक केन्द्र बन गया हो । २. अधोमूत्रमार्ग के उपस्रष्ट हो जाने से कोई आरोही उपसर्ग हो जो वृक्क तक पहुंच जावे ।
३. गवीनियों ( ureters ) में खराबी आ जाने से । यह तभी सम्भव है जब कि बस्ति में मूत्र रुक जावे गवीनीमुख दूषित हो जावें और मूत्र उनमें होकर ऊपर की ओर चढ़े ।
किसी भी कारण से सही उपसर्गकारी जीवाणु वृक्कों तक पहुँचते हैं और सपूयवृक्क अथवा वृक्कपाक उत्पन्न करते हैं । अब नीचे हम दोनों प्रकार के सपूय वृक्कपाकों का आवश्यक विवरण प्रकाशित करते हैं::
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प्रसर सपूय वृक्कपाक या पूयरक्तीयवृक्क
१. इस रोग के उत्पादक जीवाणु ३ हैं--अ-पुंजगोलाणु, आ-मालागोलाणु तथा इ - फुफ्फुसगोलाणु |
इन तीनों में से कोई भी रक्तधारा में प्रवाहित होता रहता है और जब वह वृक्ककेशालों में पहुँचता है तो वहाँ उसे पकड़ लिया जाता है । पुंजगोलाणु अस्थिमज्जा पाक, विधि, कारबंकिल या तीव्र दण्डाण्वीय हृदन्तःपाक द्वारा रक्त में प्रवाहित होते हैं ।
२. दोनों वृक्कों में उपसर्ग एक साथ जाता है और दोनों में ही असंख्य छोटी छोटी श्यामाकसम ( miliary ) विद्रधियाँ बन जाती हैं । इन विद्रधियों के केन्द्र आपीत एवं सपूय होते हैं जिनके चारों ओर अधिरक्तता के कारण लाली छाई रहती है । ये विधियाँ बाह्यक में प्रायः मिलती हैं इतनी मज्जक में नहीं पर जब मज्जक में मिलती हैं तो उनकी संख्या कम नहीं होती ।
३. मूत्र में पूय नहीं पाया जाता। जब तक विधियाँ बड़ी होकर वृक्कमुख में खुलने योग्य होती हैं उससे पूर्व ही पूयरक्तता ( pyaemia ) के कारण रोगी इहलोक से परलोक की ओर गमन कर जाता है ।
४. उपरोक्त जीवाणु अन्तःशल्य ( emboli ) के रूप में कार्य करते हैं उनके चारों ओर मृत ऊति का कटिबन्ध रहता है जिसके चारों ओर अत्यधिक व्रणशोथात्मक प्रतिक्रिया देखी जाती है ।
नाभ्य सपूयवृक्कपाक या शल्यवृक्क इसके ३ विभाग बनाये गये हैं :
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१. वृक्कमुखवृक्कपाक ( pyelonephritis ) २. वृक्कमुखपाक ( pyelitis )
३. सपूयवृक्कोत्कर्ष ( pyonephrosis )
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