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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १४८ विकृतिविज्ञान रक्त में न होकर उतियों या धातुओं में होता है। जल में घुलकर लवण वृक्कों तक जाने से पूर्व ही ऊतियों में पहुँच जाता है इस कारण वृक्क द्वारा उसके बाहर जाने का प्रश्न ही नहीं उठता । लवण तभी तक रुकता है जब तक जल रुका रहता है । यदि हम भोजन से लवण निकाल दें तो जल अधिक काल तक उतियों में रुका नहीं रह सकता। इसी आधार पर प्राचीनों ने शोथहर उपचारों में लवण को वर्जित बतलाया है। क्योंकि प्रोभूजिनों का भी बहुत अंश शरीर से बाहर जाता रहता है अतः इस रोग की चिकित्सा में लवण-विरहित प्रोभूजिन-बहुल चिकित्सा अधिक उपकारिणी सिद्ध हुआ करती है । ___ शरीर में रक्तरस में साधारणतः २५० मिलीग्राम प्रतिशत पैत्तव रहता है परन्तु इस रोग में वह बढ़ कर ५०० से लेकर १००० मिलीग्राम प्रतिशत तक पाया जाता है इस अवस्था को परमपैत्तवरक्तता ( hypercholesterinaemia) कहते हैं। गर्भिणी स्त्री में स्वाभाविकतया परमपैत्तवरक्तता देखी जा सकती है। केशालान्तर प्रकार नामक अनुतीव्र वृक्कपाक के अतिरिक्त यह मधुमेह, वृक्कोत्कर्ष (nephrosis) जीर्णवृक्कपाक जिसके साथ में धमनी जारठ्य या रक्तपीडनाधिक्य हो, जीर्ण अवरोधात्मक कामला जो पित्ताश्मरीजन्य अवरोध से न हुआ हो तथा कुछ प्लीहोदरों में विकृति के रूप में देखी जाती है। पैत्तवाधिक्य का मुख्य हेतु रक्तरस की प्रोभूजिनों का लगातार कम होते चले जाना है। यह भूलना नहीं है कि वृक्कजन्य स्थूल सर्वांग शोथ के अतिरिक्त अन्य प्रकार के शोथों में यह पैत्तवाधिक्य नहीं देखा जाता तथा यह स्वयं वृक्कजन्यशोथ कारक हो सो भी नहीं है बल्कि वह तो इस शोथ का परिणाम मात्र है जिसका मूल कारण वितिमूव्रता है। इसके कारण रक्त में विमेदिरक्तता ( lipaemia) भी देखी जाती है। ___ इस रोग में रक्त में महत्त्व का अन्य परिवर्तन जीर्ण अणुकोशात्मक अरक्तता ( chronic microcytic anaemia) और देखा जाता है जो काफी गम्भीर होता है । इसका ठीक कारण पता नहीं चलता। ऐसा लगता है कि शोणवतुलि के निर्माण के लिए आवश्यक वर्तुलि का अभाव या उसके दोनों घटकों के संयुक्त होने के लिए आवश्यक वातावरण का अभाव भी हो सकता है या प्रोभूजिनों की कमी के कारण अवटुकाग्रन्थि की क्रियाशीलता की मन्दता इसका कारण है। रक्तस्थ मिह की मात्रा में वृद्धि अनुतीव्रावस्था में विशेष नहीं हो पाती। रक्तनिपीड में उत्तरोत्तर वृद्धि होने लगती है जिसके कारण हृदय में परमपुष्टि ( hypertrophy ) के कुछ लक्षण मिलने लगते हैं। इस रोग में मृत्यु कुछ महीनों बाद होती है। मृत्यु का कारण वृक्क क्रिया का अभाव न होकर सर्वांगशोथ तथा शारीरिक दौर्बल्य के कारण लगे उपसर्गों का प्रभाव विशेष होता है जिनमें श्वसनक, श्वसनकजन्य उदरच्छदपाक हो सकता है । कुछ रोगियों के वृक्कों में मण्डाभ विहास (amyloid degeneration) भी प्रकट होता हुआ देखा जाता है । यह अवस्था युवक-युवतियों में प्रायः देखी जाती है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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