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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir १३६ विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव संकेन्द्रण हो जाता है तब वह नालिकीय अधिच्छद को आहत कर देता है। आदिप्रावर एक अधिच्छदीय रचना रखता है यद्यपि वयस्कों में उसके कोशा कुछ चिपटे होकर अन्तश्छदीय आकृति बना देते हैं। गर्भ में वाहिन्यगुच्छ पर एक आयतज अधिच्छद ( cuboidal epithelium ) छाया रहता है। क्योंकि इन कोशाओं की केशालों के अन्तश्छदीय कोशाओं से अखण्डता ( integrity ) रहती है इसी कारण मूत्र में स्वभावतः श्विति ( albumen ) प्रकट नहीं होता। जब व्रणशोथात्मक अथवा अन्य प्रक्रिया के द्वारा इन कलाओं का आघात हो जाता है तब प्रोभूजिनों के प्रति उनकी अतिवेध्यता ( permeability ) बढ़ जाती है जिसके कारण वितिमेह ( albuminuria ) हो जाता है। वृक्क, तिक्ताति, मिह ( यूरिया) आदि क्षेप्य उत्पादों (waste-products) के उत्सर्जन ( exeretion ) के अतिरिक्त रक्तरस की लवणमात्रा के नियमन ( regulation of salt content of the plasma ) तथा उसके उदजनायन संकेन्द्रण ( hydrogen-ion concentration ) के नियमन पर भी प्रभावकारी कार्य करते हैं। स्वस्थवृक्क तिक्ताति (अमोनियाँ) का स्वयं निर्माण करके चाहे जब मूत्र को तिक्ताति से अधिक और चाहे जब कम युक्त कर सकते हैं। शारीरिक धातुओं में चयापचय क्रिया के अनुसार मूत्र की प्रतिक्रिया चाहे जब क्षारीय और चाहे जब अम्ल हो जाया करती है। स्वभावतः अम्लचयापचयितों के उत्पादन के कारण मूत्र की प्रतिक्रिया आम्लिक होती है। अम्लता का प्रमुख कारण मूत्र में अम्ल क्षारातु भास्वीय (acid sodium phosphate) की उपस्थिति है। इसी रूप में मूत्र का ९० प्रतिशत भास्वर उपस्थित रहता है। फुफ्फुसों तथा त्वचा के द्वारा अधिकांश जल का उत्सर्ग होते रहने के कारण ही मूत्र में जल की अपरिमित राशि नहीं रहती तथा सब लवण संकेन्द्रित रूप में ही उत्सृष्ट होते हैं तथा नालिकाएँ अधिकांश जल का पुनचूर्षण कर लेती हैं जो कि शरीर के लिए पर्याप्त हितावह है। लवणों के संकेन्द्रण की कोई एक रूपता नहीं होती वह तो वृक्त की क्रिया पर ही निर्भर होता है । मिह रक्त की अपेक्षा मूत्र में ६० गुना अधिक संकेन्द्रित होता है। नीरेय रक्त से २ गुने अधिक संकेन्द्रित होते हैं। यह प्रवृत्य संकेन्द्रण ( selective concentration) वृक्क ऊति की एक विशेषता है। जब वृक्क रोगाक्रान्त हो जाते हैं तो प्रवृत्य संकेन्द्रण की क्रिया शिथिल पड़ जाती है और वृक्क अधिक जल के प्रचूषण में असमर्थ होकर अधिक जलराशि मूत्रमार्ग से उत्सृष्ट करते रहते हैं तथा स्फटाभों की भी अधिक मात्रा मूत्र में होकर जाने लगती है। यही कारण है कि स्वस्थावस्था में जो वृक्क केवल ५० सीसी जल की सहायता से अपने सब क्षेप्य उत्पादों को निकाल फेंकते थे वे ही रुग्ण होने पर १५०० सीसी जल की आवश्यकता अनुभव करने लगते हैं ताकि वे उतने ही क्षेप्य पदार्थों को बाहर निकाल सकें ( लैशमेट तथा न्यूबर्ग)। इसी कारण बहुमूत्रता (polyuria ) का रोग हो जाता है परन्तु यह पूरक बहुमूत्रता ( compensatory polyurea) कहलाती है क्योंकि इस अवस्था में रक्त की रसायन ( blood For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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