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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव १२६ रक्तपित्त के होने से इस रोग में अरक्तता बहुधा मिल सकती है तथा यकृत् के प्रत्यरक्ततत्व (anti-anaemic principle ) के ठीक प्रकार से संचित करने और मुक्त करने की क्रिया में बाधा पड़ने से कभी कभी महाकोशीय अरक्तता ( macrooytic anaemia ) हो जा सकती है। जब यह व्याधि अपनी चरमावस्था को पहुँच जाती है तो इसमें ज्वर, कामला, रक्तस्रावी प्रवृत्ति, प्रलाप, संन्यासादि लक्षण देखने को मिलते हैं जैसे कि यकृत् के तीव्र पीत अपोषक्षय में मिले थे। यकृत्क्रिया का स्थगन, हृद्भेद, रक्तसंवहन क्रिया में अवरोध, रक्तस्राव, श्वसनक या यक्ष्मा का उपसर्ग इनमें से कोई भी यकृद्दाल्युत्कर्ष के रोगी की मृत्यु का कारण हो सकता है। इस रोग से संत्रस्त व्यक्ति को फौफ्फुसिक राजयक्ष्मा होती हुई बहुधा देखी जाती है। __परमचयिक पैत्तिक यकृदाल्युत्कर्ष (Hypertrophic Biliary Cirrhosis)-यह दो प्रकार का होता है। एक का कारण पित्तप्रणालियों का चिरकाल तक अवरोध है इसे अवरोधात्मक पैत्तिक यकृहाल्युत्कर्ष (obstructive biliary cirrhosis) कहते हैं और दूसरे का कारण अनुतीव्र या जीर्ण पित्तप्रणालीपाक ( cholangitis) होता है जिसे उपसर्गात्मक पैत्तिक यकृद्दाल्युत्कर्ष (infective biliary cirrhosis ) कहते हैं। दोनों ही प्रकार सहज अथवा अवाप्त (acquired ) हो सकते हैं और दोनों में यकृत् का पूर्ण वर्धन होता है जिसके साथ कामला रहता है। अब हम दोनों का आवश्यक विवरण प्रस्तुत करते हैं। . अवरोधात्मक पैत्तिक यकृद्दाल्युत्कर्ष-यह निम्न कारणों में से किसी से हो सकता है:... अ-पित्तप्रणाली (bile duct) के सहज स्थैर्य (congenital stenosis) द्वारा । आ-सामान्य पित्तप्रणाली में किसी अश्म (stone ) के अभिघट्टन ( impaction ) द्वारा। इ-कलसिका ( ampulla ) में स्थित किसी नववृद्धि के अवरोध द्वारा । ई-याकृत्प्रणाली या सामान्यप्रणाली पर बाह्य निपीड़ द्वारा। उ-व्रणशोथात्मक क्रियाओं से प्राप्त तन्तूत्कर्षों या नव वृद्धियों के द्वारा। इस रोग में नवीन तान्तव उति केशिकाभाजीय प्रदेशों में प्रत्येक खण्डिका में उसके चारों ओर एक बराबर रहती है वह बड़ी बड़ी पित्तवाहिनियों के फैलाव के अनुसार चलती है इस कारण एक खण्डीय यकृदाल्युत्कर्ष (unilobular cirrhosis ) भी प्रायः मिल सकती है। खण्डिकाओं के बाहर की पित्तप्रणाली बड़ी-बड़ी और वक्र होती हैं उनका बाह्य स्तर मोटा होता है जिसकी मोटाई का कारण जीर्ण व्रणशोथात्मक तन्तूत्कर्ष का होना है साथ ही पैत्तिक केशाल पित्ताधिक्य के कारण फूल जाते हैं। उनकी तान्तव पट्टिकाओं में चुदवृत्ताकारी कोशाओं ( small round •cells) की भरमार देखी जाती है। यह आवश्यक नहीं कि इस रोग में यकृत् के For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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