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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ११२ विकृतिविज्ञान नैदानिक दृष्टि से स्थूलान्त्रपाक के कई भेद किए जा सकते हैं जिनमें प्रमुख निम्न हैं : तीव्रप्रसेकी स्थूलान्त्रपाक ( acute catarrhal colitis)-यह आमाशय पाक या आन्त्रपाक का परिणाम है। उदर में कभी कभी तीव्रशूल के साथ अतीसार जिसमें तरल दुर्गन्धयुक्त मल और सरक्त आम निकलती हुई देखी जाती है। कभी कभी द्रुतनाडी के साथ तापांशाधिक्य भी मिलता है। जीर्णप्रसेकीस्थूलान्त्रप्राक (chronic catarrhal colitis)- समय समय पर विरेचन द्रव्यों का प्रयोग इस रोग का कारण बनता है। आध्मानयुक्त भारी आन्त्रप्रदेश में कभी कभी शूल का होना जो भोजनोपरान्त बढ़ जावे विशेष करके देखा जाता है। तीव्र प्रसेकी स्थूलान्त्रपाक के परिणामस्वरूप होने वाले रोग में अतीसार मिलता है सरक्त आमातीसार तरल मल जिसमें अन्नांश बहुत कम रहता है मिलता है पूयजनक जीवाणुओं के द्वारा उपस्रष्ट स्थूलान्त्र भी इस रोग का कारण होती है। सत्रण स्थूलान्त्रपाक ( ulcerative colitis)-यह एक तीव्र स्वरूप का व्रणशोथ है जिसमें गुदभाग से सरक्त, साम, सपूय मल निकलता है। मल का अतिसरण अनेकों बार (२०-३० बार ) होता है, साथ में ज्वर रहता है। रोग अनुतीव्र ( subacute ) रूप में उत्पन्न होता है। इसमें पेट अन्दर को धंसता है पर जब साथ में आध्मान हो तो गम्भीरता अधिक हो जाती है। स्पर्श करने में प्रायः शूल नहीं मिलता पर जब उदरच्छद तक व्रणशोथ पहुँच जाता है तो उदर के वाम एवं अधोवाम भाग में काठिन्य एवं शूल का अनुभव हो जाता है। किसी भी स्थूलान्त्रपाक में जब आन्त्र में व्रण ( ulcers ) उत्पन्न हो जाते हैं तो वह सव्रणस्थूलान्त्रपाक के नाम से सम्बोधित किया जाता है। विकृतिवेत्ता इसके निदान के सम्बन्ध में किसी एक मत पर अभी तक नहीं पहुँच सके हैं। इसका प्रारम्भ कभी. तीव्र ज्वर के साथ ग्रहणी के समान होता है और कभी बहुत धीरे धीरे । इस रोग में विक्षत ( lesions ) दण्डाण्वीय ग्रहणी या सज्वर ग्रहणी ( bacillary dysentery ) के सदृश होते हैं। व्रण प्रायः तथा अधिकांश में उपरिष्ठ superficial ) भाग में ही होते हैं । मल के साथ निरन्तर रक्त के जाने के कारण इस रोग का एक परिणाम अरक्तता ( anaemia) में होता है जो द्वितीयक प्रकार का ( secondary type ) होता है। ग्रहणी के समय ही इस रोग में भी कुछ व्रण पेशीस्तर तथा उदरच्छदीय स्तर में भी चले जाते हैं जिसके कारण स्थूलान्त्र का छिद्रण (perforation ) तक हो जाता है। परन्तु ग्रहणी से विपरीत व्रणों का उपशम होते समय तान्तव उति बहुत कम बनती है जिसके कारण स्थूलान्त्र की स्वाभाविक क्रिया में कोई अवरोध नहीं हो पाता । यह रोग जीर्णस्वरूप का या अनुतीव्र होने से वर्षों चलता हुआ देखा जाता है जो उण्डुक से चलकर गुदभाग तक अपना प्रभाव जमाता और विक्षत उत्पन्न करता जाता है। For Private and Personal Use Only
SR No.020004
Book TitleAbhinav Vikruti Vigyan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRaghuveerprasad Trivedi
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1957
Total Pages1206
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size32 MB
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