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विकृतिविज्ञान
हैं उनके ऊपर तन्वि का कुछ आस्तर चढ़ा होता है जिसके कारण उनकी आकृति कुछ मन्द ( dull ) हो जाती है । ये संघनन ( consolidation ) के क्षेत्र बोले जाते हैं यहां पर फुफ्फुसच्छदपाक भी रहता है । यदि फुफ्फुल का स्पर्श किया जावे तो स्वाभाविक भाग मृदु और कर्कर ध्वनि करते हैं ( soft and crepitant ) पर पाक से पीडित भाग कड़े होते हैं तथा दबाने से दबते नहीं ( resistant to pressure ) । समवसादित क्षेत्र छूने से इण्डिया रबर के समान लचलचा लगता है ।
यदि खण्डिकीय फुफ्फुसपाक के कारण मृत फुफ्फुस को काटा जावे तो वह रक्त से परिपूर्ण मिलता है और बूंद बूंद करके रक्त उसमें से गिरने लगता है । कटे हुए धरातल से निकले हुए व्रणशोथ ग्रस्त क्षेत्र होते हैं उनका वर्ण लाल या धूसर होता है देखने में कणात्मक उनकी आकृति होती है और वे छूने से टूटने लगते हैं । प्रारम्भ में इन क्षेत्रों का वर्ण लाल होता है पर ज्यों ज्यों बहुन्यष्टि सितकोशाओं का अन्तराभरण होता जाता है तथा संघनित क्षेत्र के कोशीय पदार्थ का पचन होता चलता है उनका वर्ण धूसरा पीत होता जाता है साथ ही उनके अन्दर का स्राव अधिक तरल और पूय होता जाता है ।
अण्वीक्ष परीक्षा करने पर चित्र खण्डीय फुफ्फुसपाकवत् आभासित होता है परन्तु थोड़ा सा अन्तर यह होता है कि व्रणशोथ क्षेत्र एक श्वसनिका के चारों ओर पाया जाता है । कभी कभी यह अन्तर भी तिरोहित हो जाता है यदि ये क्षेत्र बहुत पास पास होकर मिल जावें । यदि इन क्षेत्रों की पृथक् पृथक् परीक्षा की जावे तो वे सब एक ही आयु के हों यह आवश्यक नहीं, किसी के निर्माण की कोई अवस्था देखी जाती है और किसी की कोई । कोई अधिरक्तावस्था में होता है, किसी में तन्त्वि एवं लालकण भरे रहते हैं किसी में सितकोशाओं की भरमार हुई रहती है तो किसी में उपशमावस्था मिलती है ।
जिस प्रकार फुफ्फुस के वायुकोशाओं में खण्डीय फुफ्फुसपाक में लालकर्णीों तथा तन्त्वि की बहुलता मिलती है वैसी खण्डिकीय में नहीं होती पर यहां सितकोशा और एकन्यष्टि कोशाओं की बहुलता अपेक्षाकृत अधिक होती है ।
ausata श्वसनक के सिध्मों की संख्या भी निश्चित नहीं है किसी किसी में एक या दो ग्रन्थिका स्पष्ट दिखती है जिनका व्यास चौथाई से पौन इच तक का होता है पर कहीं कहीं सम्पूर्ण खण्ड में इतनी ग्रन्थिकाएं होती हैं कि उनमें से कुछ एक दूसरे से मिल जाती हैं और ऐसा लगता है कि मानो खण्डीय संघनन हो गया हो ।
अभी हमने बतलाया था कि इस रोग के कारणभूत जीवाणु कई प्रकार के होते हैं और जिस जीवाणु के द्वारा यह रोग होता है उसमें कुछ न कुछ विशेषता पाई जाती हैं जिसे हम आगे प्रगट करेंगे ।
उदाहरण के लिये मालागोलाणुजन्य श्वसनक जो आद्य बहुत कम पर गौण (उत्तरजात) प्रायशः देखा जाता है और जो प्रतिश्याय शोणप्रियाणु के उपसर्ग के साथ बहुधा
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