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विविध शरीराङ्गों पर व्रणशोथ का प्रभाव
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कुफ्फुस के वायु कोशाओं में रक्त के सितकोशाओं की भरमार होने लगती है जिसके कारण वायुकोशा पूर्णतः भर जाते हैं । सितकोशाओं की यह दूसरी लहर ( second wave ) है । वायुकोशाओं में तन्त्वि का प्रसार पहले ही से रहता है जिसकी जालिकाओं का वर्णन द्वितीयावस्था में किया जा चुका है । इस तन्वि जालिकाओं के परिणाह में पहले सितकोशाओं का जमघट होता है जहां से फिर वे और अन्दर की ओर गमन करते हैं । यदि इस अवस्था में यकृत् को काटा जाय तो वह कणात्मक तल जो द्वितीयावस्था में दृग्गोचर होता था नहीं मिलता अपि तु धरातल का वर्ण आपीत हो जाता है । सितकोशाओं के चारों ओर एक तरल वलय का निर्माण धीरे धीरे होने लगता है जिसका तात्पर्य यही है कि तन्त्वि जालिकाओं को तरल करने के लिए अभिपाचिक किण्व ( tryptic ferments ) ने अपना कार्य प्रारम्भ कर दिया है। धीरे धीरे जालिकाओं का पूर्णतः वियोजन हो जाता है और एक घुलनशील पदार्थ बन जाता है । यह पदार्थ कास के साथ बाहर बहुत कम आता है या बिल्कुल नहीं आता । इस समय यदि हम फुफ्फुस गोलाणुओं का विचार करें तो वे सितकोशाओं के उदर में समाये हुए मिलते हैं। अब इनका कोशाबाह्य स्वरूप न मिल कर आन्तर - कोशीय ( intracellular ) स्वरूप ही प्रकट होता है । बहुत थोड़े कोशा बाह्य भी मिल सकते हैं। पहली और दूसरी लहरों में बहुन्यष्टिसित कोशाओं का ही बाहुल्य रहता है । पर जब सितकोशाओं की तीसरी लहर आती है तो उसमें बहुन्यष्टि के स्थान पर एकन्यष्टि सितकोशा या जालिकान्तश्छदीय संस्थान के महाभक्ष ( macrophages of reticulo-endothelial system ) वायुकोशाओं में उतर आते हैं । यह तीसरी लहर ज्वर के दारुण्य ( crisis ) के समय प्रायशः देखी जाती है । ये महाभक्ष जितने चाव से फुफ्फुसगोलाणुओं का सफाया करते हैं उतने बहुन्यष्टि कोशा नहीं करते । यदि तृतीयावस्था अधिक काल तक रहती है तो वायुकोशाओं की प्राचीरें प्रायशः नष्ट भ्रष्ट हो जाती हैं । द्वितीयावस्था की अपेक्षा इस अवस्था में फुफ्फुस का भार, उसका घनत्व तथा उसकी भिदुरता ( friability ) अधिक बढ़ जाती है । ऊति अत्यन्त मृदु और गोदमय (pulpy ) हो जाती है । सबसे बड़ा परिवर्तन फुफ्फुस के वर्ण में हो जाता है पहले जो असित आरक्त बभ्रु ( dark reddish brown ) वर्ण का फुफ्फुस बतलाया गया था वह इस अवस्था में धूसर ( grey ) वर्ण का या आपीतश्वेत वर्ण का हो जाता है जिसके बीच बीच में रंगयुक्त योजक अति खचित रहती है । वर्ण परिवर्तन के निम्न ३ कारण हैं जो आंशिकरूप में इसके लिए उत्तरदायी हैं :
१. द्वितीयावस्था में आये हुए रक्त के लाल कर्णो का शोणांशन ( haemolysis) २. सितकोशाओं का अत्यधिक संख्या में आगमन
३. व्रणशोथात्मक स्राव ( inflammatory exudate ) के द्वारा रक्तवाहिनियों पर इतना पीड़न डालना कि उनकी अधिरक्तता समाप्त हो जाय । फुफ्फुस के इस वर्ण परिवर्तन के आधार पर ही इस अवस्था को धूसरावस्था या
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