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सम्प्राप्तिविमर्श
१०७३
धातुक्षयकरैर्वायुः कुप्यत्यतिनिषेवितैः । चरन् स्रोतःसु रिक्तेषु भृशं तान्येव पूरयन् । तेभ्योऽन्यदोषपूर्णेभ्यः प्राप्य वाssवरणं बली ॥ ( अ. संग्रह नि. स्था. ) धातु क्षीण करने वाले रूत्त-शीतादि आहार-विहारादिक कारणों से मनुष्य के शरीर में वातदोष प्रकुपित हो जाता है । धातुओं की क्षीणता के कारण उनमें स्थित स्रोतस् रिक्त हो जाते हैं । उनको यह कुपित वायु खूब भर देता है। इस कारण वायु के विविध रोग हो जाते हैं । कभी कभी जब स्रोतस् अन्य दोषों से पूर्ण होते हैं तब कुपित वायु उनमें प्रवेशकर आवरण प्राप्त करके भी विविध वातिक व्याधियों को उत्पन्न करने में समर्थ हो जाता है । स्वतः वातकोप से या आवृत हुई वात से दोनों में से किसी एक प्रकार से ही वात रोग होते हुए देखे जाते हैं ।
७४- वातालिका—
ऋतुव्यापत्तिसमये जनमारः प्रवर्तते । तत्रोपवासी धृतिमान् विप्राभिवादन ॥ त्वरमाणश्चिकित्सेत प्रवृद्धा मारयेत्त्वरम् । पित्तश्लेष्मसमुत्थाना वातशोणितमूच्छिता ॥ मन्त्रौषधयश्चापि जनमारात्प्रमुच्यते । वातालिकेति तामाहुः यत्रवांस्तत्र जीवति ॥ ( भेलसंहिता) असात्म्यगन्धमादाय वातो यत्रातिरिच्यते । तत्र मर्त्येषु सामान्यः प्रतिश्यायः प्रवर्तते ।। तथा वातालिकानान्तु पिटीका चास्य जायते । कक्षाधः ऊरुमूले च पाणिपादतलेषु च ॥
कण्ठे वा श्रोत्रमाश्रित्य वस्तौ वा हृदयेऽपि वा ।
वातालिका एक प्रकार का जनमार ( epidemic ) है । उपवास, धीरता, विद्वज्जनसेवा, मन्त्र, औषध आदि मार्ग द्वारा इससे रक्षा होती है । पहले प्रतिश्याय होता है फिर कक्षा वंक्षणादि प्रदेशों में, कण्ठ, श्रोत्र, बस्ति, हृदयस्थ क्षेत्रीय लसीका ग्रन्थियाँ सूज जाती हैं। तुरत चिकित्सा न होने से मार देता है। केवल यत्नवान् ही जीता है । यह व्याधि पित्त और कफ से उत्पन्न व्याधि है इसमें वात और रक्त मूच्छित रहते हैं
७५ - वाताष्टीला -
शकृन्मार्गस्य वस्तश्च वायुरन्तरमाश्रितः । अष्ठीलाबद्धनं ग्रन्थि करोत्यचलमुन्नतम् ॥ विण्मूत्रानिलसङ्गश्च तत्राध्मानञ्च जायते । वेदना च परा बस्तौ वाताष्ठीलेति तां विदुः ॥ (सु. उ. तं.)
मल और मूत्र मार्ग के मध्य में स्थित अष्टीला नामक बद्ध ग्रन्थि में कुपित हुआ वायु स्थित होकर उसे अचल और उन्नत कर देता है जिसके कारण मल-मूत्र और वायु का अवरोध होता है, आध्मान उत्पन्न होता है तथा बस्ति में वेदना होती है ।
७६ – विद्रधि—
त्वग्रक्तमांसमेदांसि प्रदूष्यास्थिसमाश्रिताः । दोषाः शोफं शनैर्घोरं जनयन्त्युच्छ्रिता भृशम् ॥ महामूलं रुजावन्तं वृत्तञ्चाप्यथवायतम् । तमाहुर्विद्रधिं धीरा विज्ञेयः स च षड्विधः ॥ ( सु. उ. तं.)
त्वचा, रक्त, मांस, मेद और अस्थि इन दूष्यों को आश्रित करके कुपित दोष धीरे धीरे एक घोर शोफ को उत्पन्न करते हैं जो गोल या चौड़ा, महामूलवाला और शूलयुक्त होता है इसी को धीर पुरुष विद्रधि कहते हैं ।
७७ - विषमज्वर
दोषोऽल्पोऽहितसम्भूतो ज्वरोत्सृष्टस्य वा पुनः । धातुमन्यतमं प्राप्य करोति विषमज्वरम् ॥
अल्प दोष अहितकर आहार विहार के कारण कालविशेष में लब्धबल होकर जिसका ज्वर अभी-अभी ही छूटा है उसे पुनः रसरक्तादिक धातुओं में पहुँच पहुँचकर ज्वर उत्पन्न कर देते हैं । यही विषमज्वर कहलाता है ।
७८ - विसर्प
रक्तं लसीका त्वङ्मांसं दूष्यं दोषास्त्रयो मलाः । विसर्पाणां समुत्पत्तौ विज्ञेयाः सप्तधातवः ॥
(च. चि. स्था. )
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