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रोगापहरणसामर्थ्य
१०२६ प्रत्येक स्तनधारी जीवधारी के अभिनव रुधिर में प्रायः मिलता है। यह भी एक सामान्य पदार्थ है । इसकी आवश्यकता कुछ विशिष्ट प्रतीकारक पदार्थों ( Specific-immune substances ) के लिए आवश्यक होती है जिनका वर्णन आगे होगा। यह तत्व ५६° तक १० मिनट तपाने से नष्ट हो जाता है । (८) व्यंश-विकर ( Lysozyme)यह नाम १९२२ में फ्लेमिङ्ग नामक वैज्ञानिक ने दिया है। वह कहता है कि प्राणियों के नासास्राव और अश्रुओं में तथा अन्य वानस्पतिक पदार्थों में भी रोगाणुओं को घोलने वाला यह पदार्थ रहता है।
शरीरप्रतिरक्षा के विशिष्ट उपाय-यदि प्रयोगशाला के किसी प्राणी में किसी रोगाणु को या रोगाणु विष को अन्तर्वेध द्वारा पहुंचा दिया जाय तो उस प्राणी में इन बाहरी विषाक्त वस्तुओं से भिड़ने के लिए उसके जालिकान्तश्छदीय-संस्थान (reticulo-endothelial system) में एक विशिष्ट तत्व उत्पन्न होने लगता है। इन तत्वों को प्रतिद्रव्य ( Antibodies ) कहते हैं। जिन पदार्थों के अन्तः प्रवेश से जो प्रतिद्रव्य बनते हैं उन्हें प्रतिद्रव्यजन या संक्षेप में प्रतिजन ( Antigen) कहते हैं। जिस प्रकार प्रयोगशाला के प्राणी में किसी प्रतिजन के अन्तःनिःक्षेप से प्रतिद्रव्य तैयार किए जाते हैं वैसे ही मानव शरीर में जब कोई रोगाणु या रोगाणु विष पहुँच जाता है या कोई प्रतिजन पहुँचाया जाता है तब भी ये प्रतिद्रव्य वहाँ वनने लगते हैं। ये प्रतिद्रव्य प्रत्येक रोग के लिए पृथक-पृथक होते हैं। किसी व्यक्ति को आन्त्रज्वर होने के कारण एक विशेष प्रकार का प्रतिद्रव्य उसके शरीर में तैयार होगा जो आन्त्रज्वर पर विजय प्राप्त करेगा। वह प्रतिद्रव्य उस व्यक्ति की प्लेग या विसूचिका से रक्षा करने में समर्थ नहीं हो सकता। प्रतिद्रव्योत्पादन में जिन प्रतिजनों का प्रयोग किया जाता है उनकी संरचना बड़ी जटिल होती है, वे प्रोभूजिनस्वरूप की होती हैं तथा अधिकांश में प्रोभूजिन तथा पुरुशर्करेय का मिश्र होता है। इन दोनों तत्वों में भी पुरुशर्करेयतस्व ( polysaccharide ) प्रतिव्यकारक होता है।
विशिष्ट प्रतिद्रव्य ३ प्रकार के होते हैं:१. प्रतिविपिक प्रतिद्रव्य ( antitoxic antibodies ) इसे प्रतिविपि
(antitoxin ) भी कहते हैं। २. प्रतिरोगाण्वीय प्रतिद्रव्य (antibacterial antibodies) ३. प्रतिविषाण्वीय प्रतिव्य ( antiviral antibodies )
प्रतिविषि एक प्रकार का प्रतिद्रव्य होता है जो बहिर्विष का क्लीबन ( neutralise ) कर देता है। रक्त में जब कोई बहिर्विष किसी रोगाणु के कारण उपस्थित हो गया हो जैसे रोहिणी में देखा जाता है तो उसे नष्ट करने के लिए प्रतिविषि उत्पन्न होता है । रक्त की लसी जिसमें यह प्रतिद्रव्य या प्रतिविषि तैयार हो जाती है, भी विशेष विष को मारने की दृष्टि से विशिष्ट हो जाती है और वह प्रतिविषिक लसी ( antitoxic serum ) कहलाती है।
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