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विकृतिविज्ञान
सहज ही उत्पन्न कर लेते हैं। इसका एक प्रसिद्ध उदाहरण राजयक्ष्मा का है । यक्ष्मा का जीवाणु प्रत्येक बालक को २-३ वर्ष की अवस्था में ही ग्रस लेता है परन्तु उसकी प्रतिरोधकशक्ति ( प्रतीकारिता) इतनी उन्नत रहती है कि बाल्यावस्था से लेकर आजीवन यक्ष्मा उसका कुछ भी नहीं बिगाड़ पाती। जब किन्हीं हेतुविशेष के कारण यह शक्ति नष्ट हो जाती है तब रोग का आक्रमण होता है । मनुष्य जीवन के प्रथम वर्ष में ही अनेक रोगों के आक्रमण होते हैं। रोग के जीवाणु सजीव वा मृत शरीरस्थ धातुओं में प्रविष्ट होते ही शरीर के द्वारा मारे जाते हैं और उनके विरुद्ध प्रतिविष या क्षमता तैयार हो जाती है । रोहिणी ( diphtheria ) का रोग प्रथम वर्ष के बालकों में ९० प्रतिशत तक देखा जाता है। जबकि वयस्कों में वह १२ प्रतिशत से अधिक नहीं होता । यह उदाहरण ही उक्त तथ्य को पुष्ट करने के लिए पर्याप्त है ।
संक्षेपतः सचेष्ट अवाप्तक्षमता वह प्रतिरोधक शक्ति है जो किसी रोग के द्वारा प्राणी के ग्रसित होने अथवा रोग के जीवाणुओं की मसूरी ( vaccine ) का टीका लगाने के पश्चात् हुए रोग के लक्षणों पर सफलतापूर्वक विजय प्राप्त कर लेने के उपरान्त उस प्राणी में रह जाती है जिसके कारण दूसरी बार यदि उसी रोग का आक्रमण हो तो वह प्राणी उस रोग से पीड़ित न हो या यदि पीड़ित भी हो तो उसका परिणाम कोई विशेष न हो । यह सचेष्टक्षमता प्रत्येक रोग में विभिन्न समय तक रहने वाली होती है ।
निश्चेष्ट अवाप्तक्षमता - निश्चेष्ट अवाप्तक्षमता की प्राप्ति गर्भ को अपरा द्वारा गये माता के रक्त में उपस्थित पदार्थों से या माता के दुग्ध में उपस्थित पदार्थों द्वारा स्तनपायी शिशु को होती है । यही कारण है कि नवजात शिशु रोहिणी के लिए क्षम होता है । ये विधियाँ प्राकृतिक विधियाँ हैं जिनके द्वारा निश्चेष्ट अवाप्तक्षमता प्राप्त कराई जा सकती है । अन्य विधियाँ कृत्रिम होती हैं परन्तु ये बहुत महत्त्वपूर्ण हैं। यदि किसी प्राणी के शरीर में विशेष जीवाणु या उसका विष प्रविष्ट कर दिया जावे तो उसके रक्त में सक्रिय अवातक्षमता आ जाती है । फिर उस विष वा जीवाणु से क्षम रक्त की लसीका ( serum ) को लेकर उसका सूचीवेध मनुष्य में कर दिया जावे तो मनुष्य के शरीर में उस जीवाणु वा विष को नष्ट करने वाले तत्व प्रविष्ट होकर उक्त रोग वा विष के आक्रमण से उसकी रक्षा कर लेते हैं । इस पद्धति को निश्चेष्ट वातक्षमता ( passive acquired immunity ) प्राप्ति की पद्धति कहते हैं । यदि कोई मनुष्य किसी एक रोग से पीड़ित होकर पुनः और यदि उसके शरीर में सचेष्टक्षमता का निर्माण उस रोग के प्रति हो चुका हो तो जब कोई दूसरा रोगी उसी रोग में ग्रस्त हो जावे तो इस स्वस्थ व्यक्ति की लसीका को अन्तर्वेध द्वारा पहुँचा देने से भी निश्चेष्टक्षमता या निश्चेष्ट अवाप्त क्षमता उत्पन्न की जा सकती है। रक्षात्मक पदार्थ जितनी मात्रा में रोगी के शरीर में जाते हैं रोगी की उस रोग के प्रति रोगापहरणसामर्थ्य भी उसी अनुपात में होती है। इसका अर्थ यह है कि रोगी की धातुएँ रोगप्रतीकारक पदार्थों को उत्पन्न करने में इस काल में निश्चेष्ट वा अकर्मण्य रहती हैं । इसी से यह नाम इस क्षमता को दिया जाता है ।
स्वास्थ्य लाभ कर चुका हो
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